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________________ द्वितीयोन्मेष: अतः इसका अभिप्राय यह हुआ कि - यद्यपि यह वर्णविन्यासवक्रता व्यञ्जनों की ही कान्ति के अनुगमन से आती है फिर भी हर एक के निश्चित गुणविशेष वाले मार्गों के अनुवर्तन के द्वारा ही इस तरह प्रस्तुत की जानी चाहिए जिससे कि उसके वास्तविक रूप का सन्निवेश हो जाय । इसी कारण से उसके उसी आधार पर प्रख्यात भेद प्रकाशित किये जाते हैं । प्राचीन आचार्यों ने उसी को अपनी इच्छा से वृत्तियों की विचित्रता से संवलित करके प्रस्तुत किया है । उपनागरिका आदि वृत्तियों का जो वैचित्र्य है अर्थात् अद्भुत स्वरूप वाली अपने में निहित नियतता के भेद के कारण विभिन्नता है उससे युक्त या संवलित मान कर ही उसे पुराने काव्य-शास्त्र के विद्वानों ने मान रखा है । तो यहाँ तात्पर्य यह है कि - सुकुमार आदि मार्गों का अनुवर्तन करने के अव्यधान वृत्ति वाली इस ( वर्ण विन्यासवक्रता ) का सारे गुणों के स्वरूप के अनुसरण का समन्वय करने के कारण परतन्त्र होना और असंख्य प्रकार की होना दोनों ही अवश्यम्भावी हैं, इस तरह परतन्त्रता का अभाव और असीमप्रकारता का अभाव मानना बहुत समीचीन नहीं प्रतीत होता १८९ ननु च प्रथममेको द्वावित्यादिना प्रकारेण परिमितान् प्रकारान् स्वतन्त्रत्वं च स्वयमेव व्याख्याय किमेतदुक्तामिति चेन्नैष दोषः, यस्माल्लक्षणकारैर्यस्य कस्यचित्पदार्थस्य समुदायपरायत्तवृत्तेः परव्युत्पत्तये प्रथममपोद्धारबुद्धया स्वतन्त्रतया स्वरूपमुल्लिख्यते, ततः समुदायान्तर्भावो भविष्यतीत्यल मतिप्रसंगेन । शङ्का उठाई जा सकती है कि पहले एक, दो इत्यादि प्रकार से सीमित भेदों को और स्वातन्त्र्य को स्वयं ही स्पष्ट करके फिर यह क्यों कहते हो ( कि परतन्त्रता और असीम प्रकारता का अभाव मानना समीचीन नहीं ) । वस्तुतः यह दोष नहीं है क्योंकि लक्षणकार किसी भी पदार्थ की दूसरे को व्युत्पत्ति कराने के लिए उसके समुदाय परतंत्र होने पर भी पहले अपोद्धार की दृष्टि से स्वतन्त्र ढङ्ग से ही उसका स्वरूप लिखते हैं फिर तो उसका समुदाय में अन्तर्भाव हो जायगा ही, इसलिए ज्यादा विस्तार से कहने की अपेक्षा नहीं । येयं वर्णविन्यासवत्रता नाम वाचकालंकृतिः स्थाननियमाभावात सकलवाक्यस्य विषयत्वेन समाम्नाता, सैव प्रकारान्तरविशिष्टा नियतस्थानतयोपनिबध्यमाना किमपि वैचित्र्यान्तरमाबध्नातीत्याह यह जो 'वर्ण विन्यासवक्रता' नामक शब्दालङ्कार ( यहाँ-कहाँ वर्णों की आवृत्ति होनी चाहिए ऐसे ) स्थानों के निर्धारित न होने के कारण, सम्पूर्ण
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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