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________________ द्वितीयोन्मेषः १८७ कराई है। इस प्रकार यहाँ किसी भी वर्ण की पुन: पुन: आवृत्ति कराने की कवि की व्यसनिता नहीं प्रतीत होती है । तथा बराबर नये नये वर्णों की आवृति होने से एक अपूर्व चमत्कार की सृष्टि होती जाती है। यथा वा हंसानां निनदेषु इति ॥ २३ ॥ अथवा जैसे ( उदाहरण संख्या १७३ पर पूर्वोदाहृत ) हंसानां निनदेषु इत्यादि ॥ २३ ॥ यह श्लोक ॥ (इस श्लोक को तथा इसके अर्थ को वहीं देखें । इसमें कवि ने पहले न की आवृत्ति कराकर 'क' एवं 'त' की, फिर 'ठ' एवं 'घ' की, उसके वाद 'भ्' 'क्' एवं 'न' तथा 'न' की आवृत्ति कराई, जिससे उत्तरोतर नवीनता विकसित होकर सहृदयहृदयहारिणी बन गई है।) यथा च एतन्मन्दविपक्व इत्यादौ ॥ २४॥ और जैसे (उदाहरण संख्या ११०७ पर पूर्वोद्धत ) एतन्मन्द विपक्व इत्यादि में ॥ २४ ॥ ( इसका अर्थ एवं पूरा श्लोक वहीं देखें, साथ ही उक्तोदाहरण की भांति लक्षण घटित कर लें।) यावा गामह वसाणगसरहसकरतलिप्रबलन्तसेलभाविहलं । वेवंतथोरथणहरहरकमकंठग्गहं गोरि ॥२५॥ (नमत दशाननसरभसकरतुलितबलच्छलभय विह्ललाम् । वेपमानस्थूलस्तनभरहरकृतकण्ठग्रहां गौरीम् ॥) अथवा जैसे रावण द्वारा वेग से बांहों में उठा लिए गए हिलते हुए कैलाश पर्वत के भय से व्याकुल और कांपते हुए भारी वक्षःस्थल के आतिशय्य के कारण शंकर जी के द्वारा डाली गई गलबाहीं वाली को प्रणाम कीजिए ।॥ २५ ॥ . (यहाँ भी पहले ण, स, तथा ल की आवृत्ति कराकर फिर व, ह, र एवं ग आदि की आवृत्ति कराई गई है।)
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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