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________________ १६८ वक्रोक्तिजीवितम् मार्गाणां सुकुमारादीनामेतत्त्रितयं कैरपि महाकविभिरेव, सामान्यैः, प्राप्तव्यपर्युत्सुकैः प्राप्योत्कण्ठितै रसकृत् बहुवारमभ्यासेन क्षुण्णं परिगमितम् । यत्र यस्मिन् मार्गत्रये कामपि भुवं प्राप्य प्रसिद्धि गताः लोकोत्तरां भूमिमासाद्य प्रतीति प्राप्ताः । सर्वे कवयस्तस्मि - मार्गत्रितये येन यास्यन्ति गमियन्त स्वैरविहारहारि स्वेच्छाविहरणरमणीयं स कोsपि अलौकिकः साधु शोभनं कृत्वा सुन्दरपदन्यासक्रमः कथ्यते सुभगसुप्तिङन्तसमर्पणपरिपाटीविन्यासो वर्ण्यते । मार्गस्वैरविहारपद-प्रभृतयः शब्दाः श्लेषच्छायाविशिष्ठत्वेन व्याख्येयाः । इति श्रीराजानककुन्त कविरचिते वक्रोक्तिजीविते काव्यालंकारे प्रथम उन्मेषः । न सुकुमारादि मार्गों की त्रयी किसी-किसी के द्वारा अर्थात् महाकवियों के ही द्वारा - सामान्य कवियों के द्वारा नहीं, जी कि उद्देश्य के प्रति उत्सुक थे याने काव्यप्रयोजनों के प्रति उत्कण्ठावान् थे, बार-बार अर्थात् अनेकशः अभ्यास के द्वारा सेवित होती रही है अर्थात् ग्रहण की जाती रही है । जिस मार्गत्रयी में ( उनमें से कुछ ) सफलता की ऊँची भूमिका को प्राप्त करके प्रसिद्ध हो चले अर्थात् सर्वश्रेष्ठ स्थान को प्राप्त करके सर्वप्रिय बन चले । अब सभी कवि उसी मार्गत्रयी में जिस कारण से लगे रहेंगे अर्थात् उन्हीं मार्गों से चलते रहेंगें, स्वेच्छा विहार के कारण मनोहारी अर्थात् अपनी इच्छा से मार्गचयन और उसके ग्रहण-त्याग आदि का स्वातन्त्र्य-लाभ करके एक विचित्र रमणीयता ले आते हुए उस अनिर्वचनीय अर्थात् लोकोत्तर सुन्दर पदों के विन्यास के क्रम को बताया जायगा अर्थात् मनोहारी सुबन्त और तिङन्त के प्रस्तुत करने की परिपाटी का विन्यास बहुत ही अच्छे ढङ्ग से वर्णित किया जायगा । मार्ग, स्वरविहार, पद आदि शब्द यहाँ पर श्लेष की सुन्दरता के वैशिष्ट्य की दृष्टि से समझे जाने चाहिए । इस प्रकार श्री राज़ानक कुन्तक द्वारा विरचित काव्य के अलङ्कारग्रन्थ वक्रोक्तिजीवित का प्रथम उन्मेष समाप्त हुआ ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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