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________________ १३२ वक्रोक्तिजीवितम् युक्तम् । यस्मादसंख्य संविभागाशक्यता कदाचिदसम्पत्त्या कार्पण्येन वा सम्भाव्यते । तदेतदुभयमपि नास्तीत्युक्तम्-तस्योदारभुजोष्मणोऽनवसिता नाचारसम्पतयः [ इति ] । यथा च यहाँ पर संग्राम का महोत्सव के साथ सम्बन्ध बताकर उस प्रकार के रूपक की सृष्टि की गई है जिसमें अलंकार्य "आर्य अपनी वीरता से तुम सब का वध करेंगे" यह अलंकार ( रूपक ) की शोभा के आधिक्य के अन्दर समाया हुआ दिखाई पड़ता है। जैसा कि तुम सब में से कोई साधारण भी ( राक्षस ) बहुत दूर के भी देशों में कहीं भी बिना हिस्सा पाये नहीं शेष रहेगा । इसलिए संग्रामरूप महोत्सव के समुचित हिस्सा पाने की लम्पटता के कारण तुममें से हर एक ( राक्षस ) जल्दबाजी ( उतावली ) को छोड़ दें। गिनती में हम लोग बहुत ज्यादा हैं, इस लिए ( सब के विभाजन का ) अनुष्ठान असम्भव है । यदि ऐसा आप लोग समझते हैं तो वह भी उचित नहीं है । क्योंकि असंख्य लोगों में विभाजन की असमर्थता तो कदाचित् सम्पत्ति का अभाव होने से अथवा ( सम्पत्ति होते हुए भी बाँटने की कृपणता के कारण ही सम्भव है लेकिन आर्य के पास ( सम्पत्ति का अभाव अथवा कृपणता ) ये दोनों ही नहीं हैं इसे – 'विशाल भुजाओं की उष्णता से युक्त उन (आर्य ) के न आचार ही समाप्त हुए हैं और न सम्पत्तियाँ ही' इस कथन के द्वारा प्रतिपादित किया जा चुका है । प्रकार इस श्लोक में अलंकार्य अलंकार के शोभातिशय में समाया हुआ प्रतीत होता है | अतः यह विचित्रमार्ग का उदाहरण हुआ ) । । इस और जैसे ( इसी का दूसरा उदाहरण ) कतमः प्रविजृम्भितबिरहव्यथः शून्यतां नीतो देशः ॥ ६४ ॥ अत्यधिक बढ़ी हुई विरह की व्यथा से युक्त कौन-सा देश ( आपने ) शून्य कर दिया है ॥ ६४ ॥ इति । यथा च कानि च पुण्यभाजि भजन्त्यभिख्यामक्षराणि ॥ ६५ ॥ इति । इस वाक्य में और जैसे - ( इसी प्रसङ्ग में ) तथा कौन से पुण्यवान् वर्ण आपके नाम का आश्रयण करते हैं ।। ६५ ॥ इस वाक्य में अत्र कस्मादागताः स्थ, किं चास्य नाम इत्यलङ्कार्यमप्रस्तुत - प्रशंसालक्षणालङ्कारच्छायाच्छुरितत्वेनैतदीयशोभान्तर्गतत्वेन सहृदय
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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