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________________ प्रथमोन्मेषः १२० तो लकड़हारे की प्रशंसा की है लेकिन उससे गम्य हो रही है तद्विषयक निन्दा कि तुम बड़े नीच हो, क्योकि तुम इस बात को सहन न कर सके कि लोग सभी समय अच्छे-अच्छे आम के मधुर फलों का सेवन करें। अतः ईविश हर समय आम्र-फल देने वाली उस आम्र वृक्षों की पंक्ति को काट डाला इस प्रकार यहाँ स्तुतिमुखेन निन्दा के प्रस्तुत होने से व्याज-स्तुति अलंकार है। साथ ही इस लकड़हारे के चरित्र-वर्णन द्वारा कवि ने उस नृशंस पुरुष का वर्णन प्रस्तुत किया है जिसने सदैव परोपकार में रत रहने वाले किसी महापुरुष का विनाश किया है अतः प्रतीयमान ढंग से यहां अप्रस्तुतप्रशंसालंकार उपनिबद्ध किया गया है। वह मप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार उक्त व्याजस्तुति अलंकार से और अधिक शोभायुक्त होकर अलंकृत हवा है अतः इस उदाहरण में भी व्याजस्तुति अलंकार का उपनिबन्धन कवि ने अप्रस्तुतप्रशंसा मात्र अलंकार से असन्तुष्ट होकर उसके अमंकार रूप में किया है । इसीलिए आचार्य कुन्तक कहते हैं किअत्रायमेव न्यायोऽनुसन्धेयः । यथा च किं तारुण्यतरोरियं रसभरोद्विमा तथा बल्लरी लीलाप्रोच्चलितस्य कि लहरिका लावण्यवारांनिः॥ उद्गाढोत्कलिकावतां स्बसमयोपन्यासविम्भिणः कि साक्षादुपदेशयष्टिरथवा देवस्य शृङ्गारिणः ॥१२॥ यहां भी यही न्याय अपनाना चाहिए । (जिस पूर्व उदाहृत "है हेलाजित"...."इत्यादि पद्य में अपनाया गया था)। और जैसे ( इसी का तीसरा उदाहरण ) ( किसी नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि.)क्या यह (सुन्दरी) तारुण्यरूपी वृक्ष की रस के अतिशय से उत्पन्न नूतन लतिका है या कि चांचल्यवश उछले हुये लावण्यरूपी सागर की तरंग है? अथवा तीव्र उत्कण्ठावाले प्रेमीजनों को अपने सिद्धान्त (प्रेम) का पाठ . पड़ानेवाले शृङ्गार-देवता (काम) की उपदेश-यष्टि है ॥ १२॥ अत्र रूपकलक्षणो योऽयं वाक्यालङ्कारः तस्य सन्देहोक्तिरियं छायान्तरातिशयोत्पादनायोपनिबद्धा चेतनचमत्कारितामावति । शिष्टं पूर्वोदाहरणद्वयोक्तमनुसतव्यम् । यहाँ पर उपचार के बल पर जो सुन्दरी नायिका पर बस्तरी लहरिका एवम् उपदेश यष्टि का आरोप किया गया है इस एप का जो रूपक नामक ३० जी०
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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