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________________ प्रथमोन्मेषः १२७ लंकृतेरप्रस्तुतप्रशंसायाः स्वरूपम् - गर्हणीयप्रतीयमानपदार्थान्तर पर्यवसानमपि वाक्यं वस्तुन्युपक्रमरमणीयतयोपनिबध्यमानं तद्वि दाह्लादकारितामायाति । तदेतद् व्याजस्तुतिप्रतिरूपकप्रायमलङ्करणान्तरमप्रस्तुतप्रशंसाया भूषणत्वेनोपात्तम् । न चात्र सङ्करालङ्कारव्यवहारो भवितुमर्हति पृथगति परिस्फुटत्वेनावभासनात् । न चापि संसृष्टिसंभवः न च द्वयोरपि वाच्यालङ्कारत्वमू, समप्रधानभावेनानवस्थितेः । विभिन्नविषयत्वात् । यथा वा " यहाँ पर ( कवि ने) प्रतीयमान रूप से ( किसी ) अत्यन्त निन्द्य चरित्र वाले किसी ( कंजूस धनवान रूप ) अन्य पदार्थ को हृदय में स्थापित कर उसी प्रकार के व्यापार वाले ( अर्थात् जैसे किसी धनाढ्य व्यक्ति के पास अपार धन होता है लेकिन स्वभावतः कंजूस होने के कारण वह निर्धनों को धन देकर सन्तुष्ट नहीं कर सकता, उसी प्रकार समुद्र भी अथाह जल से भरा हुआ होने पर भी जलाभिलाषी किसी भी प्यासे राही को ( खारा होने के कारण अपेय ) जल को पिला कर सन्तुष्ट नहीं कर सकता । अतः दोनों के समान व्यापार वाला होने के कारण समुद्र को वाच्य रूप से वर्णित किया है ( इस श्लोक में वस) इतना ही अप्रस्तुतशंसा नामक अलङ्कार का स्वरूप है । निन्द्य चरित्र वाले धनाढ्य, कृपण रूप प्रतीयमान दूसरे पदार्थ में समाप्त होने वाला भी यह श्लोक ( सागर चरित्र रूप वर्ण्य ) वस्तु में यत्नपूर्वक आरम्भ की रमणीयता से उपनिबद्ध होकर सहृदयों को आह्लादित करने में समर्थ होता है । तो इस प्रकार यह व्याजस्तुति रूप अन्य अलङ्कार को अप्रस्तुतप्रशंसा के अलङ्कार रूप में ( कवि ने ) ग्रहण किया है । ( अर्थात् यहाँ पर कवि ने वाच्य रूप से व्याजस्तुति अलङ्कार को उपनिबद्ध किया है । व्याजस्तुति का लक्षण 'अलङ्कारसर्वस्वकार राजानक रुय्यक ने इस प्रकार दिया है - " स्तुतिनिन्दाभ्यां निन्दस्तुत्योर्गम्यत्वे व्याजस्तुतिः " अर्थात् जहाँ पर वाच्य रूप से वर्ण्यमान स्तुति एवं निन्दा के द्वारा क्रम से निन्दा और स्तुति गम्य प्रतीयमान ) हों, वहाँ व्याजस्तुति अलङ्कार होता है तथा उन्होंने उदाहरण के रूप में भी इस पद्य को उद्धृत किया है यहाँ पर स्तुतिमुखेन समुद्र की निन्दा की गयी है अर्थात् वाच्य रूप से तो समुद्र की प्रशंसा की गई है कि आपके ससान कोई परोपकारी है ही नहीं लेकिन उससे गम्य होती है समुद्र की निन्दा कि तुम इतने नीच हो कि अथाह जल से युक्त होते हुए भी प्यासों की प्यास नहीं बुझा सकते। साथ ही कवि ने समुद्र के चरित्र के वर्णन द्वारा किसी निन्द्य चरित वाले कंजूस धनी व्यक्ति के चरित्र को प्रस्तुत किया है जो कि सागर की भाँति अपार
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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