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________________ प्रथमोन्येषः ९१ च यस्याश्रयः स्थानं स तथोक्तः । तस्यापि बहवः प्रकाराः सम्भवन्तिसंख्यावैचित्र्यविहितः कारकवैचित्र्यविहितः, पुरुषवैचित्र्यविहितश्च । तत्र, संख्यावैचित्र्यविहितः-यस्मिन् वचनवैचित्र्यं काव्यबन्धशोभायै निबध्यते । यथा मैथिली तस्य दाराः ।। इति ।। ६३ ।। ( इस प्रकार 'पूर्वार्द्धवक्रता' एवं उसके अवान्तर भेदों का संक्षिप्त विवेचन कर अब तीसरी 'प्रत्ययाश्रितवक्रता' एवं उसके अवान्तर भेदों का प्रतिपादन कर रहे हैं-) ( कविव्यापार ) वक्रता का प्रत्यय के आश्रित रहने वाला अन्य ( तीसरा) भी भेद है (जिसे 'प्रत्ययाधितवक्रता' कहते हैं )। वक्रभाव का दूसरा भी भेद विद्यमान है। कैसा ( भेद ) प्रत्यय के आश्रय वाला। प्रत्यय अर्थात् सुप् और तिङ् हैं जिसका आश्रय अर्थात् स्थान वह हुआ उस प्रकार कहा गया ( प्रत्ययाश्रय भेद )। उसके भी सङ्खधा के वैचित्र्य से उत्पन्न अनेक ( अवान्तर ) भेद सम्भव हैं। उनमें सङ्ख्या वैचित्र्य से उत्पन्न ( 'प्रत्ययाश्रयवक्रता' का अवान्तर भेद वहाँ होता है )-जहाँ ( कविजन ) काव्यबन्ध की शोभा के लिये वचनों (एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन ) की विचित्रता का प्रयोग करते हैं । जैसे सीता उसकी पत्नी हैं ।। ६३ ।। ( यहाँ 'मैथिली' शब्द एकवचन में और 'दाराः' शब्द बहवचन में प्रयुक्त है क्योंकि दारा शब्द नित्य बहुवचनान्त है, परन्तु कवि ने 'मैथिली' की विशेषता बताने के लिए 'दाराः' शब्द का ही प्रयोग समानाधिकरण्य रूप में कर वाक्य में एक अपूर्व चमत्कार ला दिया है। अतः यहाँ एकवचन के साथ बहुवचन का प्रयोग होने से सङ्खघावैचित्र्यकृत वक्रता है )। यथा च फुल्लेन्दीवरकाननानि नयने पाणी सरोजाकराः ।। ६४ ।। और जैसे (इसी वचनवैचित्र्यविहित 'प्रत्ययवक्रता' का दूसरा उदाहरण)( उस सुन्दरी की ) दोनों आखें विकसित कमलों के जंगल हैं तथा दोनों हाथ कमलों की खाने हैं ।। ६४ ॥ अत्र द्विवचनबहुवचनयोः समानाधिकरण्यमतीव चमत्कारकारि । यहाँ (कुशल कवि द्वारा प्रयुक्त 'नयने' तथा 'पाणी' पदों के) द्विवचन तथा ( उन दोनों के उपमान रूप 'फुल्लेन्दीवरकाननानि' एवं 'सरोजाकराः' पदों के ) बहुवचन का समानाधिकरण्य (अर्थात् समान ६. जी०
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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