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________________ क . ( १६ ) दुहराने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, यदि इन्हें अलङ्कार शब्द का 'भलङ्काराभिधायक ग्रंथ' अर्थ अभीष्ट न होता । साथ ही यदि हम अलङ्कार का अर्थ 'अलङ्कारप्रन्थ' मान लेते हैं तो कुन्तक का यह कथन 'ननु च सन्ति चिरन्तनास्तदलङ्काराः' पूर्णतया सात हो जाता है, इससे इनके विवेचन की अनभिप्रेत सीमितता समाप्त हो जाती है। क्योंकि इसका अर्थ हो जायगा कि 'यदि प्राचीन बहुत से अलङ्कारप्रन्थ हैं तो आपके इस नवीन अलङ्कारग्रन्थ की क्या आवश्यकता ?' और फिर यह भी कथन कि 'यद्यपि सन्ति शतशः काव्यालङ्कारस्तथापि न कुतश्चिाप्येवंविधवैचित्र्यसिद्धिः' का अर्थ भी सजत हो जायगा। ___साथ ही 'काव्यस्यायमलङ्कारः कोऽप्यपूर्वो विधीयते' से हमें अभिधान और अभिधेय दोनों का बोध हो जायगा 'अर्थात् इस प्रकार अलङ्कारों का प्रतिपादन • करने वाले प्रन्थों का नाम उपचार से 'अलंकार' होता है और उनके अभिधेय उपमादि अलङ्कार रूप प्रमेय होते हैं । अन्यथा प्रयोजन और अभिधान के अतिरिक्त अभिधेय की कोई चर्चा ही इस कारिका से सामने नहीं आ पायेगी। और तब 'ग्रन्यस्यास्यालङ्कार इत्यभिधानम्' का अर्थ होगा कि इस (प्रकार के ) अलङ्कार के प्रतिपादक ग्रन्थ को उपचार से अलङ्कार सञ्ज्ञा दी जायगो। न कि यह अर्थ 'कि हमारे इस ग्रन्थविशेष का नाम 'अलङ्कार' हैं। क्योंकि ऐसा अर्थ कर लेने पर तो फिर 'काव्यालङ्कार' नाम मानना भी अनुचित ही होगा। और ऊपर कही गई 'अलङ्कार' शब्द की व्याख्या निरर्थक सिद्ध होगी। अतः कुन्तक के ग्रन्थ का नाम 'वक्रोक्तिजीवि।' है ( कारिका तथा वृत्ति दोनों भागों का) यही स्वीकार करना समीचीन है । ___अभिधेय-इसका अभिधेय तो उपमादि प्रमेय समूह है हो जैसा कि वे स्वयं कहते हैं-'उपमादिप्रमेयजातमभिधेयम्' । कुन्तक का 'उपमादिप्रमेयजातमभिधेयम्' यह कथन भी इसी बात का समर्थन करता है कि कुन्तक यहाँ सामान्य रूप से अलङ्कारप्रन्थों के प्रयोजन को बता रहे हैं, केवल अपने 'वक्रोक्तिजीवितमात्र' के .. नहीं अन्यथा अपने प्रन्थ का प्रतिपाद्य वक्रोक्ति आदि कुछ कहते। क्योंकि उपमा .. आदि तो सबके सब अलङ्कार उनको एकमात्र 'वाक्यवक्रता' में ही अन्तर्भूत है 'वाक्यस्य वक्रभावोऽन्यो भियते यः सहस्रधा। यत्रालङ्कारवर्गोऽसौ सर्वोऽप्यन्तर्भविष्यति ॥' (१।२०) साथ ही जब वे केवल वक्रोक्ति को ही अलङ्कार मानते हैं तयोः पुनरलकृतिः वक्रोक्तिरेव । (१०) प्रयोजन-प्रन्थ का प्रयोजन बताते समय भी कुन्तकने एक नवीनता प्रदर्शित की है । इनके पूर्व के सभी प्राचार्यों ने तथा बाद के सभी प्राचार्यों ने केवल
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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