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________________ ४ वक्रोक्तिजीवितम् ___स्वभाव के भूषण होने पर अर्थात् अपने ही स्वरूप के ( अथवा धर्म के ) अलंकार हो जाने पर जब भूषणान्तर अर्थात् दूसरे अलंकार का विधान · . किया जायगा तब ( वैसा ) विहित अर्थात किए जाने पर, उस ( दूसरे अलंकार ) के होने पर दो ही प्रकार की स्थिति सम्भव है। कौन सी वह (दो प्रकार की स्थिति है ) ? उन दोनों अर्थात स्वभावोक्ति और दूसरे अलंकार का भेदावबोध अर्थात् भिन्नता की प्रतीति कभी प्रकट अर्थात् सुस्पष्ट और कभी अप्रकट अर्थात् अस्पष्ट होगी। तब स्पष्ट अर्थात् उस ( स्वभावोक्ति एवं दूसरे अलंकार के भेद ) के ( अलग २) प्रकट होने पर सर्वत्र सभी कवियों ( द्वारा विरचित) वाक्यों में ( अर्थात् काव्य में ) संसृष्टि (रूप) एक ही अलंकार प्राप्त होगा। ( और ) उस ( भेद ) के अस्पष्ट अर्थात् साफ-साफ जाहिर न होने पर सर्वत्र ( काव्य में ) संकर (सन्देह, अङ्गाङ्गिभाव अथवा एकाश्रयानुप्रवेश रूप ) एक ही अलंकार प्राप्त होने लगेगा। (यदि स्वभावोक्तिवादी कहे कि ठीक है ये ही दो अलंकार हो) तो क्या दोष होगा? अतः बताते हैं ( कि दोष यह होगा) कि अन्य अलंकारों का विषय ही समाप्त हो जायेगा। अन्य अलंकार अर्थात् उपमा आदि का विषय अर्थात् प्राप्ति का स्थल ही कहीं भी नहीं बचेगा अर्थात् ( उपमादि ) निविषयता को प्राप्त हो जायेंगे। और इस प्रकार फिर उनका लक्षण करना ही निष्प्रयोजन ( व्यर्थ ) होने लगेगा । अथवा यदि वे दोनों संसृष्टि और संकर ( अलंकार ) ही उन ( उपमादि ) के विषय रूप से कल्पित कर लिए जाय, तो भी कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा, क्योंकि उन्हीं (स्वभाव्रोक्ति अलङ्कारवादी) आलङ्कारिकों द्वारा वह अर्थ अस्वीकार किया गया है । अतः इस आकाशचर्वण के सदृश व्यथं चर्चा को हम समाप्त करते हैं। अवसरप्राप्त (प्रकृत ) बात का अनुसरण करें। (इस प्रकार निश्चित हुमा कि) कवि के व्यापार का विषय बनकर वर्णित होते हुए जिस किसी भी पदार्थ का सहृदयों के हृदयों को आनन्दित करनेवाला स्वभाव ही सब प्रकार से काव्य के शरीर रूप से वर्णन का विषय बनता है । (बोर) वही (काव्य शरीर रूप स्वभाव ही) यथोचित ढंग से जिस किसी भी शोभाधिक्य को उत्पन्न करनेवाले अलङ्कार से युक्त किया जाना चाहिए । इसी बात को हमने 'अर्थः सहृदयाह्लादकारिस्वस्पन्दसुन्दरः' (१९ सपा 'उभावेतावमङ्कायौँ' (१।१०) इन दो पिछली कारिकाओं में प्रतिपादित एवं शब्दार्थयोः परमार्थममिघाय 'शब्दार्थों' इति (११७) काव्य
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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