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________________ वक्रोक्तिजीवितम् काव्य कहलाने लगेंगे जो कि आपको भी इष्ट नहीं है ) इसी बात को दूसरे डंग से स्थापित करते हैं शरीरं चेदलङ्कारः किमलङ्कुरुतेऽपरम् । आत्मैव नात्मनः स्कन्धं कचिदप्यधिरोहति ॥ १३ ॥ (किसी वस्तु का वर्ण्य मान स्वभावरूप ) शरीर ही यदि अलंकार है ( तो वह अपने से भिन्न ) किस दूसरे ( अलंकार्य को अलंकृत करता है। ( अर्थात स्वभाव का कथन ही तो शरीर होता है और यदि वही अलंकार हो गया तो दूसरे किसे वह अलंकृत करेगा क्मोंकि ) कहीं भी शरीर ही शरीर के कन्धों पर नहीं चढ़ता है ( अर्थात् शरीर का स्वयं अपने कन्धे पर चढ़ सकना सर्वथा दुर्लभ है ) ॥ १३ ।। यस्य कस्यचिद्वर्ण्यमानस्य वस्तुनो वर्णनीयत्वेन स्वभाव एव वर्ण्यशरीरम् | स एव चेदलङ्कारो यदि विभूषणं तत्किमपरं तद्वयतिरिक्तं विद्यते यदलङ्करुते विभूषयति | स्वात्मानमेवालङ्करोतीति चेत्तदयुक्तम् अनुपपत्तेः । यस्मादात्मैव नात्मनः स्कन्धं कचिदप्यधिरोहति, शरीरमेव शरीरस्य न कुत्रचिदप्यं समधिरोहतीत्यर्थः, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अन्यचाभ्युपगम्यापि ब्रुमः- जिस किसी भी वयं मान वस्तु का स्वभाव ही वर्णन के योग्य होने के कारण वर्ण्य शरीर होता है । और यदि वह ( स्वभाव ) ही अलंकार अर्थात् विभूषण है तो उससे भिन्न दूसरा क्या (शेष) रहता है जिसे (वह) अलंकृत अर्थात् विभूषित करता है । (और यदि यह कहो कि स्वभावोक्ति) अपने आप को ही अलंकृत करता है तो यह ठीक नहीं-( इस बात के ) युक्तिसङ्गत नहीं होने से। क्योंकि अपने आप ही अपने कंधे पर नहीं चढ़ा जाता अर्थात शरीर ही शरीर के कंधे पर कभी नहीं चढ़ता अपने आप में क्रियाविरोध होने के कारण । और फिर 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से आपकी बात को कि 'स्वभावोक्ति अलङ्कार होता है' ) स्वीकार कर ( हम आपसे ) पुछते हैं कि भूषणत्वे स्वभावस्य पिहिते भूषणान्तरे । भेदावनोधः प्रकटस्तयोरप्रकटोऽथवा ॥ १४ ॥ स्वभाव ( स्वभावोक्ति ) को अलंकार मान लेने पर ( काव्य में ) दूसरे
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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