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________________ ९४] * तारण-वाणी इसलिए मुमुक्ष जीवों के लिये सम्यग्ज्ञान ही धर्मध्यान श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है, जो सम्यग्ज्ञान एकमात्र रुचिपूर्वक शास्त्रम्वाध्याय करने से ही होता है। भावार्थ-सम्यग्ज्ञान ( स्वाध्याय ) से तत्व-अतत्व, पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, हित-अहित, योग्य-अयोग्य, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, प्राह और अग्राह का बोध होता है। भव्यजीव सम्यग्ज्ञान सेअर्थात स्वाध्याय करने से अपनी आत्मा का शुद्धस्वरूप विचार कर अपने आत्मपरिणामों (समतादि गुणों) के सिवाय परपदार्थों में राग, द्वेष, मोह नहीं करते हैं और न विषय कषायों को सिद्धि के लिये इष्टानिष्ट बाह्य परपदार्थों में शुभाशुभ-संकल्प विकल्प ही करते हैं । इसलिये सम्यग्ज्ञानी पुरुष की ( जिसने कि शास्त्र म्वाध्याय के द्वारा पाप पुण्य इत्यादि कर्मों के बन्ध व उनके अच्छे बुरे फल और संसार, शरीर, भोगों के स्वरूप को तथा चारों गति के सुख दुःखादि को भलीभांति से जान लिया हो और स्वाध्याय करते हुए विशेष जानने में प्रयत्नशील रहता हो ऐसे आगम के रूचिवान पुरुष की ) स्वाभाविक स्वयमेव ऐसी विशुद्ध परणति हो जाती है कि जिससे उसकी हिंसादिक पापकार्यों में प्रवृत्ति नहीं होती है। वह पुण्योत्पादक शुभ चरित्र की निरन्तर प्रवृत्ति करता रहता है इसीलिए सम्यग्ज्ञान से जीवों के भावों में साम्यभाव की स्थिरता प्रगट होती है। राग द्वेषादि विकारभाव रहित साम्य अवस्था ही धर्मध्यान है। सम्यकचारित्र भी सम्यग्ज्ञान से ही होता है इसलिए सम्यग्ज्ञान ही धर्मध्यान है। क्योंकि सम्यञ्चारित्र के अभ्यास के बिना धर्मध्यान कदापि नहीं होता है । सम्यक्चारित्र (साम्यभाव-समताभाव) की प्राप्ति ही धर्मध्यान का सच्चा स्वरूप है ऐसा जानना । श्रावक तो क्या यदि मुनि भी अच्छी तरह से जिनागम कहिये शास्त्रों का अभ्यास नहीं करता है और बिना जिनागम के अभ्यास के ही तपश्चरण करता है, वह अज्ञानी है और संसारिक सुखों में लीन है ऐसा समझना चाहिये । जिनागम के अभ्यास से ही भव्यजीवों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध होता है इसलिये जिनागम का अभ्यास ही भावश्रुत और द्रव्यश्रुत का प्रधान कारण है। जिन भव्य यतीश्वरों को जिनागम के अभ्यास द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया है वे ही सम्यक तपश्चरण कर कमों का नाश करके मोक्षसुख के अधिकारी होते हैं। यह सब श्री रयणसार जी ग्रंथ की र मी गाथा का अर्थ है। सुदणाणमासं जो कुणई सम्मं ण होइ तवयरणं । कुवं जइ मूढमइ संसारसुखाणुरत्तो सो ॥१८॥ तात्पर्य यह कि-सभी आचार्यों का एक यही मत पाया जाता है कि-शास्त्र के अवलम्बन से ही ज्ञान-सम्यग्ज्ञान होता है, सम्यग्ज्ञान से सम्यक्चारित्र होता है और सम्यक्चारित्र-तप द्वारा कों की निर्जरा होकर मोक्ष होता है। अत: आज्ञासम्यक्त प्राप्ति हेतु शास्त्रस्वाध्याय अनिवार्य है ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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