SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९२ ] * तारण - वाणी * रखने वालों के भेद से भगवान जिनेन्द्रदेव ने हजारों प्रकार के पात्र बतलाये हैं । सम्माइगुणविसेसं, पत्तविसेसं जिणेहि णिद्दिछ । अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि जिसमें सम्यग्दर्शन की विशेषता है उसी में पात्र पने की विशेषता समझना चाहिये । तात्पर्य यह कि भावों की अपेक्षा से पात्रों के हजारों भेद हो जाते हैं । जिसके जितने साधारण निर्मलभाव होंगे वह साधारण पात्र, जिसके जितने विशेष निर्मलभाव होंगे वह विशेष पात्र होगा । इस तरह से हजारों भेद कहे हैं। जैसा जैमा सम्यग्दशन विशुद्ध होता जाता है वैसी वैसी ही पात्रता में विशेषता व निर्मलता श्राती जाती है । इस गाथा में कुन्दकुन्द स्वामी ने अविरतसम्यग्दृष्टि तथा देशव्रती श्रावक व महात्रती मुनि और गम कहिये शास्त्र में रुचि रखने वाले इस तरह चार भेद के अन्तर्गत भावों की अपेक्षा पात्रों के हजारों भेद कहे हैं । इससे स्पष्ट है कि या तो श्री कुंदकुंद स्वामी के समय में मूर्ति की मान्यता ही न थी अन्यथा जैसे उन्होंने शास्त्र में रुचि रखने वालों को पात्रों की श्रेणी में बताया वैसे हो पांचवा नाम दिगम्बर मूर्तिपूजा व दर्शन करने वालों को भी पात्रों की श्रेणी में बताते, अवश्य ही बताते । या फिर यह कहा जा सकता है कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने मूर्ति के दर्शन पूजा करने तक पात्रों की श्रेणी में ही नहीं लिया, जब तक कि जो शास्त्र स्वाध्याय का रुचित्रान न हो जाय, क्योंकि इसी ग्रंथ की गाथा नं० १५५ में कह चुके हैं कि ज्ञानाभ्यास ही सम्यग्दर्शन का मूल है और अन्त में भी गाथा नं. १६६ मं कहा हैक गंधमिणं जो ण दिट्ठ, गहु मण्णह ण हु सुणेह ण हु पढइ । ण हुचित ण हु भावह, सो चैत्र हवेह कुद्दिट्ठी ॥ १६६ ॥ अर्थ - जो मनुष्य इस ग्रन्थ को न देखता है, न मानता है, न सुनता है, न पढ़ता है, न चितवन करता है और न ही भावना करता है उसको मिध्यादृष्टि समझना चाहिये। अतएव - इदि सज्जणपुज्जं रयणसारं गंथं णिरालसो णिच्चं । जो पढइ सुणह भाव पावह सो सासयं ठाणं ॥ १६७॥ इसमें बताया कि - यह रयणसार ग्रन्थ सज्जनों द्वारा पूज्य है, आलस्य त्यागकर नित्य ही जो पढ़ता है, सुनता है तथा भावना करता है सो साश्वत स्थान (मोक्ष) को पाता है । भावार्थ- इन दोनों गाथाओं का यह समझना चाहिये कि - रयणसार कहिये रत्नसार यानी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र इन तीन रत्नों के ( रत्नत्रय के ) सार अर्थात् रहस्य या मर्म को बताने वाले जो ग्रन्थ जैनग्रन्थों को जो कि सज्जन कहिये धर्मात्मा पुरुषों द्वारा पूज्य हैं, मान्य
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy