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________________ ९०] * तारण-वाणी * ___ अर्थ-जो अनन्तचतुष्टय युक्त है, शाश्वत अविनाशी सुख-स्वरूप है, अदेह है, अष्ट कमों से रहित है, तथा उपमारहित है, अचल है, अक्षोभ है, निश्चल है, जंगमरूप है अर्थात् अष्ट कमों से छूटने के पीछे लोक के अग्रभाग ( मोक्ष ) में जाय है इससे जंगमरूप कही, ऐसी प्रतिमा सिद्ध प्रतिमा है ऐसा जानना । भावार्थ-पहले दाय गाथा में (१८-११ में) तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनिनि की देह सहित कही, बहुरि इनि दोय गाथानि में थिर प्रतिमा सिद्धनि की कही, ऐसे जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा, अन्य कोई अन्यथा बहुत प्रकार कल्पै हैं सो प्रतिमा वंदिवे योग्य नाही है । जिनबिंब निरूपण जिणविंबं गाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च । जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥१६॥ अर्थ-जिनबिंब कैसा है- ज्ञानमयी है, संयमकरि शुद्ध है, अतिशय करि वीतराग है, जो कर्मक्षय का कारण अर शुद्ध है, ऐसी दीक्षा और शिक्षा देय है । ऐसा प्राचार्य जिनबिंध है । जिन कहिये अरहंत, सर्वज्ञ का प्रतिबिंब कहिये ताकी जायगां तिसकी ज्यों मानने योग्य होय, ऐसे प्राचार्य हैं जो शिक्षा-दीक्षा भव्यजीवन कू देय हैं. ऐसे आचार्य कू जिनबिंब जानना । ऐसे जिनबिंब की पूजा करो । सो कुन्दकुन्द स्वामी कहे हैं तस्स य करह पणामं सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं । जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुर्व चेयणाभावो ॥१७॥ ऐसे पूर्वोक्त जिनबिंब कू' प्रणाम करो, सब प्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य करो। काहे तै–जा ध्रुव कहिये निश्चय नै दर्शन ज्ञान पाइये है, और चेतना भाव है । तात्पर्य यह कि अरहत के न होने पर उनका कार्य आचार्य करते हैं, इसलिये सच्चे प्राचार्य ही जिनबिंब है। ____ यहाँ गाथा नं. १८ में अरहन्तमुद्रा का निरूपण किया तथा १६ में जिनमुद्रा का निरूपण किया है, सो जानना। तवषयगुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छेहि सुद्धसम्मत्तं । अरहन्तमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य ॥१८॥ अर्थ-जो तप, व्रत, उत्तरगुण से शुद्ध होय, सम्यग्ज्ञान से पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ जानता हो व सम्यग्दर्शन से पदार्थनिकू देखे, ऐसा शुद्ध सम्यक्त्वी आचार्य सो ही अरहन्त की मुद्रा है, जो कि दीक्षा शिक्षा देय है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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