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________________ ८२ * तारण-वाणी* जो अपना स्वरूप, स्वरूप की श्रद्धा-रुचि, प्रतीति, आचरण करि युक्त है सो नियम करि सम्यग्दृष्टी है। गाथा नं० १५ में कहा जो परद्रव्य विषै रत है सो मिध्यादृष्टि भया कर्म कू बांधे है । गाथा नं० १६ में कहा कि-परद्रव्य तें तो दुर्गति होय है बहुरि स्वद्रव्यतै सुगति होय है यह प्रगट जाणौं, जाते हे भव्यजीव हो ! तुम ऐसें जान करि स्वद्रव्य विर्षे रति करो अर इतर जो परद्रव्य ताते विरति करो। गाथा नं० १७ में कहा कि-अपना ज्ञानस्वरूप आत्मा सिवाय अन्य अचेतन मिश्र वस्तु हैं ते सर्व ही परद्रव्य हैं ऐसे अज्ञानी के जनावनें कू सर्वज्ञदेव ने कहा है। गाथा १८ में कहा कि जो प्रात्मस्वभाव स्वद्रव्य कहा है सो ऐसा है, ज्ञानानन्दमय अमूर्तीक ज्ञानमूर्ति अपनां प्रात्मा है सो ही एक स्वद्रव्य है अन्य सर्व चेतन-अचेतन मिश्र परद्रव्य हैं। गाथा १६ में कहा कि जो ऐसे निजद्रव्य कू' ध्यावे हैं ते निर्वाण पावे हैं ये ध्यायंति स्वद्रव्यं परद्रव्य पराङ्मुखास्तु सुचरित्राः । ते जिनवराणां मार्गमनुलग्नाः लभते निर्वाणम् ॥१९॥ भावार्थ-परद्रव्य का त्याग करि जे अपना स्वरूप कू ध्यावे हे ते उत्तम-चारित्ररूप होय जिनमार्ग में लागें ते मोक्ष पावै हैं, तदुपरान्त गाथा २० में बताया कि जो जिनमार्ग में लग्या योगी शुद्धात्मा • ध्याय मोक्ष पावै है तो कहा ताकरि स्वर्ग नहीं पावै ? पावै ही पावै ॥ आगे गाथा ५८ में कहा अचेतनमपि चेतयितारं यो मन्यते स भवति अज्ञानी । सः पुनः ज्ञानी मणितः यो मन्यते चेतने चेतयितारम् ॥१८॥ अर्थ-जो अचेतन विर्षे चेतन कू मानें है सो अज्ञानी है, बहुरि जो चेतन विर्षे ही चेतन कू मानें है सो ज्ञानी कहा है। __ बोधपाहुड़ के अध्ययन से तो मैं यही समझा था कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने जिनप्रतिमा, जिनविंव भादि का स्वरूप वर्णन करके ही अचेतन प्रतिमा व अचेतन जिनवि को अमान्य ठहराया है जबकि योगीन्द्रदेव ने खुला खंडन किया है। जब मैंने श्री कुन्दकुन्द स्वामी के मोक्षपाहुड़ को देखा तो उसमें तो गाथा नं० ७ से २० तक मूर्ति मानने वालों को स्पष्ट ही कहा कि मूर्ति की मान्यता मिथ्यात्व है व गाथा नं०६ में तो बिल्कुल ही खुलासा कर दिया कि अचेतन है तोऊ पात्मभाव करि बड़े यत्न से ध्यावें हैं, जे मिध्यादृष्टी पुरुष हैं तथा इसी मोक्षपाहुइ की गाथा ५८ में यह
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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