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________________ ७६] * तारण-वाणी * आयतन-नाम जामें बसिये, निवास करिये ताका नाम है । सो जामें धर्म स्वरूप प्रात्मा निवाम करे ताकू धर्म पद्धति से धर्मायतन कहिये है । जो केवली कू सिद्धायतन और विशेष तथा मामान्य मुनियों को जो कि रत्नत्रयधारी हैं उन्हें धर्मायतन कहा है। भेषधारी, पाखण्डी, विषय कषायन में आसक्त, परिग्रहधारी धर्मायतन नाही तथा जैनमत में भी जे सूत्र विरुद्ध प्रवत्तें हैं ते भी आयतन नाही, सर्व अनायतन हैं। तात्पर्य यह कि मोक्षमार्गी जो आत्मायें वे जिस शरीर में निवास कर रही हों सो ही धर्मायतन है, संसारमार्गी सब भनाएतन हैं । मोक्षमार्गी उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर पातम ज्ञानी । द्विविध संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निज ध्यानी॥ मध्यम अन्तर बातम हैं, जे देशत्रती . आगारी । जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमग चारी ॥ इस प्रकार जो भी अन्तर आत्माएँ वह तथा केवली भगवान सो धर्मायतन जानकर इनकी यधाभक्ति विनयपूर्वक धन को खर्च करना, वैयावृत करना, स्थितिकरण करना, सेवा संभाल करना सो ही सुपात्रदान है। शंका-मुनि अवस्था तक तो वैयावृन व दान का योग बन सके परन्तु सिद्ध पायतन जो केवली उनके प्रति दान व वैयावृत कैसे होय ? समाधान-केवली भगवान का कहा हुआ जो धर्म का उपदेश अर्थात् जिनशासन उसको प्रभावना करना, प्रचार करना कि जिससे दूसरे जीव मनुष्य उसे पालन करके अपना आत्मकल्याण करें व दूसरे सब जीवों की जिससे रक्षा हो यही भगवान केवलो की सच्ची वैयावृत व सुपात्र दान है। दान की तीन श्रेणी-सुपात्रदान, दान और कुदान । ___ सुपात्रदान-जिस हमारे चारों प्रकार के दान को पाकर पाने वाली आत्माएँ अपने प्रात्मम्वरूप की स्थिरता को प्राप्त हों, उसमें दृढ़ हों, उसमें प्रगति करें और दूसरों का कल्याण करें। . दान-जिसे पाकर वे दुख से छूटें, धर्म में रुचिवान हों, धर्म प्रभावना करें और ज्ञान प्राम करें तथा चारित्रवान बने । कुदान-जिसे पाकर वे मिथ्यात्व का पोषण करें, पापों में प्रवते; स्वयं दुखी हों, दूसरों को दुखी करें, धर्म की अप्रभावना करें और को कुमार्ग पर लगावें, अपने कुमार्ग का अनुमोदन व समर्थन प्राप्त करें अथवा दातार निदान भाव से दान दे यह सब कुदान है। अत: केवली को सिद्धायतन व मुनियों को धर्मायतन कहा सो भगवान जो यह धर्मायतन
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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