SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी जिणपूजा मुणिदाणं, करेइ जो देइ सत्तिरूपेण । सम्माइट्ठी सावयधम्मी सो होइ मोक्समग्गरओ ॥१३॥ पूया फलेण तिल्लोके सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो । दाणफलेण तिलोए सारसुहं भंजदे णियदं ॥ १४ ॥ अर्थ-जो श्रावक जिन-पूजा करता है व अपनी शक्ति अनुसार सुपात्रों को चारों प्रकार का दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक मोक्षमार्गी है । वह पूजा के (जिनपूजा के) फल से तीन लोक के देवताओं द्वारा पूज्य होता है तथा शुद्ध मन से दिये हुये सुपात्रदान के फल से तोनलोक के सारभूत सुखों को भोगता है, ऐसा निश्चय जानो ॥ १३-१४ ॥ ___ श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने श्री रयणसार जी ग्रन्थ की इन दोनों ( १३-१४ वी ) गाथाओं में बनाया है कि जिनपूजा करने वाला सम्यग्दृष्टी श्रावक मोक्षमार्गी व तीनलोक के देवताओं द्वारा ज्य होता है तथा शुद्ध मन से दिये हुए सुपात्रदान के फल से तीनलोक के सारभूत सुखों को भोगता है, ऐसा निश्चय जानो। इस पर ही हमें विचार करना है कि जिनपूजा क्या है ? कि जिस जिनपूजा करने वाला श्रावक तीन लोक के देवताओं द्वारा पूज्य होता है । क्या अष्टद्रव्य से भगवान की प्रतिमा की पूजा करने से हम तीन लोक के देवताओं द्वारा पूज्य हो जायेंगे ? क्या इसी पूजा से हम सम्यग्दृष्टि श्रावक हो जायँगे ? यदि ऐसा ही माना जाय तब तो सम्यग्दृष्टिपना प्राप्त करना और अरहन्तपद पा लेना (क्योंकि अरहन्त भगवान ही तीनलोक के देवताओं द्वारा पूज्य होते हैं तब तो सम्यग्दृष्टिपद और अरहन्तपद पालेना) बड़ा ही सस्ता और सुगम हो गया व प्राचार्यों ने जो यह कहा है कि इस पंचमकाल में सम्यग्दृष्टि पुरुष विरले ही ( करोड़ों में एक ही ) हैं तब तो यह आचार्यवाक्य यथार्थ सा नहीं लगता, क्योंकि पूजा करने वाले तो हमें हजारों प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं। और यदि प्राचार्य वचन मिथ्या नहीं, सत्य ही होते हैं तब हमें जिनपूजा के मर्म को समझना होगा कि जिनपूजा ' क्या है ? किसे कहते हैं ? जिसको करने वाला श्रावक सम्यग्दृष्टि पद और अरहन्तपद पाकर तीनलोक के देवताओं द्वारा पूज्य होकर मोक्ष पा लेता है, जैसा कि कहा गया है ___ आत्मा के तीन भेद आचार्यों ने कहे-बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा । बहिरात्मा उसे कहते हैं जो संसारी प्राणी मोह में, मिथ्यात्व में डूबे हैं । अन्तरात्मा उन्हें कहते हैं कि जो सम्यम्हष्टि होजाते हैं व संसार शरीर तथा भोगों से उदास होकर जिनके आत्मकल्याण की भावना जाग्रत हो जाती है। इस अन्तरात्मा के भी तीन भेद होते हैं। १-अत्रतसम्यग्दृष्टि जो कि चौथे गुण
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy