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________________ ६०] * तारण-वाणी* अर्थ-पाठ मूलगुण, बारह उत्तरगुण (बारह गुणवत), सात व्यसन तथा सम्यक्त के पचीस दोषों का परित्याग, बारह भावनाओं का चितवन, सम्यग्दर्शन के पंचातिचारों का त्याग और भक्तिभावना तथा सात भयों का न होना, यह ७७, इस प्रकार दर्शन को धारण करने वाले सम्यग्दृष्टि भावक के सतहत्तर गुण हैं। देवगुरुसमयमत्ता संसारसरीरभोयपरिचित्ता । रयणत्तयसंजुत्ता ते मणुवा सिवसुहं पत्ता ॥९॥ अर्थ-देव, गुरु, शास्त्र में भक्ति, संसार शरीर भोगों से है विरक्त भावना जिनकी व उन्नत्रययुक्त, ऐसे पुरुष शिवसुख को पाते हैं । ___ भावार्थ- सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने से रत्नत्रय की प्राप्ति स्वयमेव हो जाती है तथापि व्यवहार रत्नत्रय को धारण किये बिना मोक्षमार्ग की व्यक्तता नहीं है। जब तक सम्यक्चारित्र की प्राप्ति नहीं है तब तक साक्षात मोक्षमार्ग नहीं है । सम्यग्दर्शन होने पर भी एक सम्यकचारित्र के बिना अद्ध पुद्गल परावर्तनकाल पर्यन्त परिभ्रमण हो सकता है। परन्तु यथाख्यातचारित्र के होने पर म्वल्प समय में ही केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। इसलिये मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिये व्यवहार रत्नत्रय धारण करने की परमावश्यकता है। दाणं पूजा सीलं उववासं बहुविहं पि खवणं पि । सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्म विणा दीहसंसारं ॥१०॥ अर्थ-दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास और अनेक प्रकार के व्रत व मुनिलिंग धारण आदि सर्व एक सम्यग्दर्शन होने पर मोक्षमार्ग के कारणभूत हैं और सम्यग्दर्शन के बिना जप, तप, दान पूजादि सर्व कारण संसार को ही बढ़ाने वाले हैं। दाणं पूजामुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । झाणज्झयणं मुक्खं जहधम्मे तं विणा तहा सो वि ॥११॥ अर्थ-श्रावक का मुख्य धर्म दान, पूजा व मुनि का ध्यान अध्ययन है। इनके बिना कोई श्रावक या मुनि नहीं हो सकता। दाणु ण धम्मु ण चागु ण मोगुण बहिरप्प जो पयंगो सो। लोहकसायग्गिमुहे पडिउ मरिउ न संदेहो ॥१२॥ अर्थ-जिसमें न दान, न धर्म, न त्याग, न नीतिपूर्वक भोग गुण हों ऐसा बहिरात्मा पतंग कीट को तरह लोभ-कषायाग्नि में जलकर मरता है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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