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________________ * तारण-वाणी को तपस्या करनी पड़ी थी, जब कहीं वे उस शरीर से छूट सके थे। शरीर ने जब तक उन्हें नहीं छोड़ा तब तक वे मोक्ष न जा सके। तात्पर्य यह कि भगवान उनकी आत्मा का नाम था और महावीर नाम था उनके शरीर का । यदि हम भगवान के पुजारी है तो आत्मा की पूजा करनी होगी, शरीर की नहीं। १६४-पदै, गुने, मूढ़ न रह जाय । जो मानव पढ़ने वालो बात को विवेक पूर्वक गुनता है, विचार करता है तथा आगम प्रमाण, अनुमान प्रमाण और प्रत्यक्ष प्रमाण, इस तरह से उसे नौलता है वह मूढ़ नहीं रहता । “आगम प्रमा। यानी सिद्धांतदृष्टि " केवल शास्त्र में लिखी होने से नहीं। १६५-मुक्ति प्रमाण, सो पात्र । श्री तारण स्वामी पात्र की तौल यह बता रहे हैं कि जिस मनुष्य में जितने प्रमाण भावमोक्ष हो वह उतने ही प्रमाण का पात्र है। मात्र वेष की शैल पर पात्रता की तौल नहीं होती। जैसा कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है - मोह रहिन जो है गृहस्थ भी, मोक्षमार्ग अनुगामी है । हो अनगार न मोह तजा तो, वह कुपंथ का गामी है ।। १६६-आपनो आपनो उत्पन्न, निमिष-निमिष लेहु-लेहु । श्री तारण स्वामी कहत ह भो भव्य पुरुषो : जिसकी अपनी आत्मा से जिस क्षण जो ज्ञान की भावना जाग्रत हो-उत्पन्न हो उसे लेह-लेह अर्थात् ग्रहण करो-ग्रहण करो। वास्तव में हर समय साथ रहकर सच्चा उपदेश दने वाली हमारी आत्मा ही है । यदि हम उसकी बात मानते चले जाय तो आत्मकल्याण नियम से होता चला जाय । किंतु मानते नहीं । आत्मा की अपनी चीज एक ज्ञान ही है। १६७-जिन रंज, जिनराज रंज, न दृश्यत राज चौदह उत्पन्न । जिन कहिए अंतरात्मा जिनराज-परमात्मा, रज कहिए आनन्द, जो मानव अन्तरात्मानन्द नथा चढ़ती हुई आनन्द श्रेणी जो परमात्मानन्द या परमानन्द का भोग करत है वे मानव फिर इस चौदह राजू वाले संसार को नहीं देखते और न इसमें जन्म ही लेते हैं अथान आत्मा नहीं, मानव जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। १६८–पद उत्पन्न दृश्यते, तद् पल्यविली स्वातिका विलयंति । जो मानव आत्मा में परमात्मपद उत्पन्न करके उसे देखते हैं, दर्शन कर लेते हैं या पा जाते हैं वे फिर इस पल्यों की आयु वाले संसार में भ्रमण नहीं करते, उनका संसार छूट जाता है । १६६-सहकार जिन स्वभाव उत्पन्न, तद्मागर विली । जो मानव अपनी आत्मा में अन्तरात्मभाव को उत्पन्न कर उसे अपना सहकारी बना लेना है अथात बहिरात्मा से अंतरात्मा
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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