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________________ • तारण-वाणी* [५३ १४५-पर्क स्वभाव, न भव भय । प्रात्मप्रकाश होने पर भव-भय नहीं रहता, वे समय पाकर भवों से छूट जाते हैं। १५६-सम्यक्त, दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्यावाधत्व अष्ट गुण हुँति सिद्धाणं । सिद्धों के उपरोक्त आठ गुण कहे हैं। जो इस जीव में भी शक्ति अपेक्षा से हैं किन्तु-मोहनीय, दर्शनावर्णी, ज्ञानावर्णी, अन्तराय, नाम, आयु गोत्र, वेदनीय इन आठ कमों से यथाक्रम ढके हुए हैं । कर्मावरण जितना-जितना क्षीण होता जाता है उतने-उतने ये गुण प्रगट होते जाते हैं, कमों का सर्वथा अभाव होने पर ये गुण पूर्ण प्रगट हो जाते हैं। १५७–तिअर्थ अर्क न दृश्यते, भयभीत । जब तक रत्नत्रय का प्रकाश नहीं होता तब तक यह जीव भयभीत रहता है । १५८-नीच, ऊँच दृश्यते, तद् नीच निगोद खांडो दृश्यते । जो मानव अपने को ऊँच तथा पर को नीच मानने की दृष्टि, मान्यकुल, वर्ण अथवा जाति अपेक्षा से रखता है वह इस अपनी भावना की पराकाष्ठा के फलस्वरूप नीच योनि अथवा निगोदरूप खड़े तक में जा गिरता है। कर्म को अपेक्षा नीच ऊंच माना है, कुल जाति की अपेक्षा नहीं। सेवा नीचकर्म नहीं, विद्वत्ता उच्चकर्म नहीं । धार्मिकता उच्चकर्म व पापिष्ठता नीचकर्म माना है । हिंसक और दुव्र्यसनप्रवृत्ति अधा-- मिकता है, अहिंसक और सदाचारप्रवृत्ति धार्मिकता है। इसी तरह हिंसक, छल कपट पूर्ण व्यापार अधार्मिकता है और अहिंसक, निश्छल तथा न्यायपूर्ण व्यापार धार्मिकता है। कठोरभाव रखना अधार्मिकता और करुणा-दयाभाव रखना धार्मिकता है। जैसा श्री गांधी जी ने कहा था कि भंगी का मैल तो नहाने से छूट जाता है, परन्तु कठोर हृदय पापी पुरुष का मैल छूटना कठिन होता है। श्री तारण स्वामी ने जन्मना नहीं, कर्मणा हो नीच, ऊँचपना माना है, ऐसा ही समस्त जैनाचार्यों ने माना है। जबकि वर्तमान मान्यता केवल जन्मना ही जैनसमाज में क्या देश भर में पाई जा रही है। १५६-जिन स्वभाव उत्पन्नी, भय विनाश । आत्मज्ञान के होने पर भयों का नाश हो जाता है, निर्भयपना आ जाता है। १६०-सहकार जिन स्वभाव उत्पन्न, तद् सागर विली । आत्मज्ञान-सम्यक्त होने पर सागरों का-अनन्त भ्रमण छूट जाता है । आत्मज्ञान का ऐसा ही माहात्म्य है। १६१-देखिउ न कहै, सुनेउ न कहै, हित उपजिउ न कहै, बोले तो न बोले-इत्यादि। ऐसी दशा सम्यक्ती की कही है। उसे संसार की इन किन्हीं भी बातों में रस नहीं रहता। वह तो अपनी आत्ममग्नता-आत्मानंद में डूबा रहता है और सुख के सामने इन्द्र तथा चक्रवर्ती के सुखों को गो हेय अर्थात् तुच्छ मानता है, हेय जानता है ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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