SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी [५१ जिनवंदना नहीं माना है । यही श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा-जिनपद नहीं शरीर को, जिनपद चेतन माहि । .. धर्म या मोक्षमार्ग कहीं बाहर नहीं है, आत्मा में ही है व प्रात्मीक अनुभव से ही वह प्राप्त होता है । यही जैन सिद्धांत है। १३७-चलि चलहु न हो मुक्ति श्री तुम न्याय सहाए । कललंकृत हो कम्म न उप , ममल सुभाए ॥ श्री गुरु कहते हैं भो शिष्यो ! चलो, चलो मुक्ति लक्ष्मी से मिलने को, ज्ञान का सहारा लेकर । तथा उपदेश करते हैं कि हे भव्यो ! हर समय अपने भावों को निर्मल-पवित्र रक्खो । निर्मल भावों के रखने से इस आत्मा को शरीर में बांधकर रखने वाले कर्मों का वध नहीं होता है। तथ पूर्व में बांधे हुए कमों की निर्जरा होते, होते समय पाकर यह आत्मा मोक्ष को पा लेती है। १३८-उव उवनो हो न्यान विन्यानह तत्त्व सहाए । हे भव्य ! तात्वज्ञान या तात्विक बुद्धि के द्वारा श्री अरहन्त का उपदेश श्रवण कर के उस में से भेदज्ञान को जाग्रत करो। “भेदज्ञान ही मोक्ष का द्वार या प्रथम सीढ़ी है-मूलमन्त्र है ।" १३६-नन्द भाव जो परिनमउ, पद पखलन जिन उत्तु । श्री तारण स्वामी कहते हैंनन्द कहिए आत्मा, इस आत्मभावानुसार परिणमन करना प्रवृत्ति करना ही सच्चा पाद प्रक्षालन करना है ऐसा अरहन्त ने कहा है । इस तरह के प्रक्षाल करने से ही आत्मा एचित्र-निर्मल होगी। १४०-विगसउ जिनपउ विगसमउ, पयाचरन पद विंद । हे भव्य ! आत्म-आनन्द में आनन्दित हो, प्रफुल्लित हो, आनन्दं परमानन्द की ध्वनि में मग्न हो । ऐसी प्रानन्द मग्न प्रफुल्लित भावनाओं में तुम अन्तरात्मा को पा जाओगे। कैसा है ? स्वयं आनन्द स्वरूप है और उस पया-- चरण कहिए आत्मांचरण के भीतर ही विंदपद-मोक्षस्वरूप परमात्मा का निवास है, उसका दर्शन हो जायगा। प्रत्येक मानव-परमात्मा के दर्शन का इच्छुक है । परन्तु परमात्मा कहां है ? इसकी खबर नहीं है। श्री तारन स्वामी कहते हैं तुम्हारे आत्मानन्द में ही वह विराजमान है । जबकि अज्ञानी जन बाहर भौति-भांति की कल्पनाओं में हूँढ़ रहे है। १४१-न्यान सहावे दरसिउ, वीरज अप्प सहाउरिना । __ आत्म-बल का दर्शन ज्ञान के द्वारा ही होता है । १४२-कमल सहावे पत्तु जइ, सिद्ध सरूव स उत्तरिना । हे मुनि ! आत्मस्वभाव या आत्मज्ञान ही पात्रता है और इस ही पात्रता में तुम्हें सिद्धसरूप की प्राप्ति होगी । १४३-जं दर्शनमोहे अंध पत्रो, सुइ परम इष्टि विलयन्तु। मोहान्ध मनुष्य दर्शनमोहनी के रहते तक इष्टस्वरूप जो 'जिनपद' कहिए अन्तरात्मा का दर्शन नहीं होता है ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy