SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • तारण-वाणी* [४१ याने ध्वनि में बाहुला हो गया हूँ । अर्थात् संसार का अब कुछ भी नहीं सुहाता । और स्वयं के श्रात्मा को ही सम्बोधन करके कहते हैं कि भो जिनवर ! चलो, चलो अपने देश ( मोक्षधाम ) को । विशेष-जिसके भीतर सम्यक्त का प्रकाश हो जाता है उसे फिर संसार रुचिकर नहीं लगता । वह तो आत्मानंद में मस्त-पागल हो जाता है । इसी दशा को परमहंस दशा कहते है । १४-पंचायन हो, पंचन्यानमय, उवन उवएसा । हे आत्मा ! तू सिंह के जैसी वीर और स्वावलम्बी है, तथा पंच ज्ञानमय है । ऐसा उपदेश में कहा गया है। ६५-अलख जिन तरन विवान सुमुक्ति पौ पओ। रमनजिन तरन विवान सुमुक्ति पओ ।। उचन जिन तरन विवान सुमुक्ति पत्रो । दर्श जिन तरन विवान सुमुक्ति पओ । जिनय जिन तरन विवान सुमुक्ति पओ ॥ इस तरह अलख जो लखने में नहीं आता, रमन जो अपने आप में रमण कर रहा है, उवन जो उपदेश का दाता है, दर्श जो श्रद्धा से परिपूर्ण है और जिनय कहिए जिनेन्द्र की नय में चलने वाला है ऐसे जिन अर्थात् अन्तरात्मा को हे भव्य ! तुम तरन विवान जानो । और उस तरन विज्ञान को प्राप्त कर मुक्ति पाने के अधिकारी बनो। इस तरह अलग्न, रमन, उवन, दर्श. जिनय ये पांच विशेषण अंतरात्मा को श्री तारण स्वामी ने दिये हैं। ६६-जिनवर उत्तउ समय संजुत्तु संसर्गह जिनकम्मु गलतु । श्री जिनवर भगवान ने कहा है कि आत्मज्ञान संयुक्त होने पर आत्मा से संसर्ग हुए कर्म गल जाते हैं ऐसा जानो । ६७–चित नाटा मेरे मन रहियो रे । उपजिउ है ममल सुभाव । श्री तारण स्वामी अपने आपके मन को सम्बोधन करके कहते हैं कि हे मन ! मैं तुझे जानता हूँ कि तू नाटा की तरह उग्रचंचल है, स्वच्छन्दगामी है, तीव्र गति वाला है । किन्तु अब मुझे जो निर्मल स्वभाव जाग्रत हुआ है उस सुभाव-रूपी ग्यूँटे से तूं बन्ध गया है अतः अब तू मेरे ही काबू में रहना। और अपने चंचलपने को छोड़ देना। ___-यहु मुक्तिरमन विलसन्तु, चित नाटा मेरे मन रहियो रे । हे मन ! तू मेरे काबू में रहते हुए मुक्तिरमण में विलास कहिए क्रीड़ा करना । मुक्ति रमणविलास--जीवन मुक्त दशा में क्रीड़ा करना-पानन्द सागर में तैरना है । ___ -सोढ़सुभावे हो परिनवै सुइकलन मुक्ति सम्पत्त । जो भव्य आत्मा सोलह कारण भावनानुसार अपनी परिणति बना लेता है उसका ध्यान, विचारधारा इतनी पवित्र आदर्श रहती है कि उसके फलस्वरूप वह तीर्थंकर गोत्र बांध लेता है व समय पाकर मुक्ति पा जाता है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy