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________________ ३४] * तारण-वाणी कहिए पात्मा आनन्दरूप हो जाता है। ४७-उत्पन्न न्यान-अक्खर, सुर, विजन, पद अर्थति अर्थ समर्थ आत्मज्ञान के उत्पन्न होने पर अक्षर, स्वर, व्यञ्जन से बने हुए जो पद उन पदों में समाया हुआ जो रत्नत्रय का भाव उसे समझने को सामर्थ्य हो जाती है। ४८-समय अर्थ, सहकार सदर्थ समय कहिये आत्मा उसे समझ लेने पर जितने भी सहकारी कारण हैं वे सब मदर्थ कहिए सार्थक हो जाते हैं, हितरूप हो जाते हैं । YE-इष्ट उत्पन्न इष्ट दर्श-इष्टरूप आत्मा-प्रात्मज्ञान उत्पन्न होने पर सब प्रकार के इष्ट दर्श जाते हैं कि प्रात्मा के लिए इष्ट क्या-क्या है । जबकि बिना आत्मज्ञान के यह विवेक नहीं होता है कि इष्टरूप क्या है और अनिष्टरूप क्या है ? यह न जानने से अनिष्ट में इष्ट की मान्यता कर लेता है जिससे आत्मकल्याण करने से वंचित रह जाता है । ५-उत्पन्न लख्य इस्ट जीवस्य आहान ___"जो मानव प्रात्मज्ञान उत्पन्न होने पर इष्ट स्वरूप आत्मा को लख लेता है फिर वह पर का आह्वान न करके स्वयं की आत्मा का ही आह्वान करता है । जैनधर्म के अनुसार अरहंत भी पर ही है, निज नहीं । प्रात्मा का आह्वान करने पर आत्मा आती है, आत्मा का पूजन करने पर आत्मा प्रसन्न होती है और हमें मार्ग-दर्शन कराती है। जबकि अरहन्त सिद्ध का आह्वान करने पर न तो वे आते ही हैं और न उन्हें हमारी पूजा से कोई प्रयोजन है, न वे प्रसन्न होते है और न व अब हमें मार्ग-दर्शन ही कराते हैं, क्योंकि वे तो अब इन बातों से परे-दूर हो गए हैं। उन्हें न तो पूजक से राग और न निंदक से द्वेष है । इतनो ही तो जैनधर्म की विशेषता है। इसी विज्ञान की भित्ति पर ही तो जेन उन्हें ( ईश्वर को ) कर्ता, धर्ता और हता नहीं मानते । इसीलिए जैनधर्म अनीश्वरवादी है, ईश्वरवादी नहीं । जहां यह मान्यता चित्त में आई कि हमारी पूजन से भगवान प्रसन्न होते हैं वहीं जैनसिद्धांत समाप्त और जहां यह मान्यता कि भगवान विना पूजा के न रह जाय वहां तो भगवान का स्वरूप ही समाप्त हो जाता है। शब्दों से कुछ भी कह, किन्तु हृदय में उपरोक्त दोनों संस्कार जम गए हैं। इसी मान्यता के निराकरण करने को उपरोक्त वाक्य श्री तारण स्वामी ने कहा है, यह स्पष्ट है । क्योंकि अमृत का प्याला भरवो गये, पिलाने वाला कोई नहीं । रास्ता पड़ा ए सामने है, ले जाने वाला कोई नहीं। अर्थात् वे अरहन्त भगवान तो अरहन्त अवस्था में मार्ग-दर्शन कराने वाला उपदेश दे गए जो कि धर्म-ग्रन्थों में मौजूद है, उस अमृत को पीकर तुम्हें मोक्षमार्ग पर चलकर मोक्ष पहुँचना हो तो पहुँच जायो, नहीं पहुँचना हो न पहुँचो, किन्तु ले जाने वाला कोई नहीं है। यह है जैन
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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