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________________ ३०] * तारण-वाणी * १४-विगत कुज्ञान सहावं ज्ञानसहावं उवएसनं देवं । अरहन्तदेव का यही उपदेश है कि कुज्ञान-स्वभाव को छोड़कर ज्ञान-स्वभाव को उत्पन्न करो अथवा ज्ञान-स्वभाव को उत्पन्न करके कुज्ञान-स्वभाव को छोड़ो-दूर करो।। १५-ज्ञानेन ज्ञान-वृद्धं जं श्रुति वर्धति मच्छ अंगनै । यहां यह दृष्टांत देकर कहा है कि जैसे मछली का अण्डा मछली की अति-स्मृति से वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार हे भव्यो ! ज्ञान से ज्ञान की वृद्धि होती है, अत: ज्ञान (आत्मज्ञान ) को जाग्रत करो। आत्मज्ञान के उत्पन्न करने पर तुम्हारा आत्मा वृद्धि को प्राप्त होता हुआ समय पाकर पूर्णज्ञानी ( केवलज्ञानी ) हो जायगा । प्रयोजन यह है कि प्रात्म-ज्ञान हो आत्म-विकाश का कारण है। शुभराग द्वारा किया गया पुण्यबन्ध विकाश का कारण नहीं ।। १६-विपनिक भाव सउत्त-विपियो कम्मान तिविहि जोएन । निर्जग स्वरूप भावों की जाग्रति करने पर ही, तीनों प्रकार के जो कर्म भावकम; द्रव्यकर्म; नोकर्म; इनकी निर्जरा होती है। बिना निर्जराभाव उत्पन्न किए, कितना भी तप करने पर कमों की निर्जरा नहीं होती। वह तप अकामनिजरो का रूप ले लेता है। १७-ज्ञानांकुरं च दिट्ट-अज्ञान अंकुरनं तंपि । ज्ञानांकुर उत्पन्न होने पर या उत्पन्न करने पर उन्हें देखते ही अज्ञानांकुर स्वयं इस तरह विलीयमान हो जाते हैं जैसे कि सूर्य उदय होते ही रात्रि पलायमान हो जाती है अथवा दीपक-प्रकाश से अंधकार । हमें अज्ञानांधकार दूर नहीं प्रत्युत ज्ञानज्योति की जाति करना है, जिसके जाग्रत होते ही अज्ञानांधकार स्वयं चला जाता है--विलीयमान हो जाता है। १८-संसार सरनि विरयं--कम्मक्खय कारणं सुद्ध' । 'पुनश्च' "संसरति संसारः" संसार के भ्रमण स्वभाव और उसमें चतुगगति के दुःखों से भयभीत होकर दृढ़ कर लिया है विरक्तभाव जिसने, ऐसा वह विरक्तभाव कर्मों को क्षय करके आत्मा को शुद्ध करने वाला है। यहाँ यह बताया है कि परके ( तीर्थंकरादि के ) वैराग्य की अनुमोदना-स्तुति से मात्र शुभ बन्ध होता है, कर्मक्षय नहीं होते । कर्मक्षय के लिए उपादान ( अपनी आत्मा ) में वैराग्य उत्पन्न होना चाहिए। तीर्थकर निमित्तमात्र हैं, उपादान तो अपनी आत्मा है। १-जिन सुभाव उवन्न ज्ञान महावेन जिन वीरं देहि । जिनेन्द्र का यह उपदेश है कि ज्ञान-स्वभाव के द्वारा अपने आपके बहिरात्मभाव को जो कि परस्वरूप हैं मिथ्यात्वभाव हैं, उन्हें दूर कर जिनस्वभाव कहिए अन्तरात्मपने (सम्यक्त) के भाव को उत्पन्न करो। यही कल्याणकारी है, उपादेय है। २०-जनरंजन राग नरय वासम्मि। जन समुदाय को हर्षित करने वाले कार्यों में जो रागभाव की समस्त प्रवृत्ति सो नरकगति का कारण है। यह वाक्य "बहारंभपरिग्रहत्वं
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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