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________________ २८] * तारण-वाणी* तन भी क्या है ? रे क्षणभंगुर, पल भर में मिट जाये । उन मल-मूत्रों का घर, जिनका नाम लिये घिन आये ॥ भोग-भोगं दुःखं अती दुस्टं, अनर्थ अर्थ लोपितं । संसारे लवते जीवा, दारुनं दुःखभाजनं ॥१७॥ पंचेन्द्रिय के भोग न सुखकर, वे अति दुखकर भाई। अनहित कर हरते जीवों की, वे सब धर्म-कमाई ॥ भव-जन में बहने वाले जो, शरण यहां लेते हैं। वे मानों जलती होली में, बलि अपना देते हैं । मिथ्यात्व-अनादि भ्रमते जीवा, संसार सरन रंजितं । मिथ्यात त्रय संपून, संमिक्तं शुद्ध लोपनं ॥१८॥ त्रय मिथ्यात्व महा दुखदाई, जन्म-मरण के प्याले । व्यक्त नहीं होने देते ये, दर्शन-गुण मतवाले ॥ इन तीनों मिथ्यात्व मोह की, डाल गले में फांसी । बनता रहता है अनादि से, यह नर भव-भव वासी। सम्यक्त-वैराग्य भावनं कृत्वा, मिथ्या तिक्त त्रि मेदयं ।। कसायं तिक्त चत्वारि, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं ॥३१॥ भव्यो ! यदि तुम यह चाहों, हों शुद्ध दृष्टि के धारी । तो ध्यानो वैराग्य-भावना, सर्व प्रथम सुखकारी ॥ त्यागो त्रय मिथ्यात्व और फिर चार कषायें छोड़ो। शुद्ध दृष्टि हो शाश्वत मुख से, फिर तुम नाता जोड़ो। इस तरह पुण्य आकांक्षा को छोड़कर सम्यक्ती बनो और शाश्वत सुख जो मोक्ष है उससे नाना जोड़कर मोक्षमार्गी बनो। तारण-वाणी १-संवेगो-शुद्धार्थ । शुद्ध प्रात्मस्वरूप से अनुराग ही सच्चा धर्मानुराग है। जबकि व्यवहारिक अर्थ में-दान पुण्य पाठ पूजादि धार्मिक कार्यों में अनुराग । २-निव्वेमो-निस्सल्लो, निर्द्वन्दो, निःलोहो । निव्वेयो ( निर्वेद ) का अर्थ है संसार से वैगम्य या उदासीन हो जाना। श्री तारन स्वामी कहते हैं कि पहले निःशल्य, निर्द्वन्द और निोमी स्नो, तब सच्ची उदासीनता भाएगी, तदुपरान्त सच्चा वैराग्य सधेगा। निःशल्य, निर्द्वन्द और निर्लोभी
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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