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________________ * तारण-वाणी * [ २५ अनुसार चले और खाली दर्शन-पूजन में ही पुण्य का बंध करे तो वह भी कमों से नहीं छूटेगा, क्योंकि यदि हम, मानलो मूर्ति को नहीं मानते और शास्त्र के मानने वाले कहे जाते हैं तो इतने में ही सम्यक्ती नहीं हो गये हम भी मिध्यात्वी ही रहेंगे। तारणपंथी हों चाहे मूर्ति पूजक हों चाहे कोई भी हों न्याय सबके लिये एक ही है और वह न्याय यह है कि हमें शास्त्र स्वाध्याय करके अथवा श्रवण करके, प्रश्नोत्तर द्वारा समझकर व शास्त्र का मर्म स्वयं समझकर दूसरों को उपदेश करके और सबसे मुख्य बात यह कि अपने भावों में वीतरागता याने उदासीनता उत्पन्न करके शास्त्रानुसार प्रवृत्ति करके, जैसे कि आचार्यों ने स्वाध्याय के ५ भेद इस तरह के बताए हैं- आत्मज्ञान प्राप्त करना होगा, आत्मज्ञान होने का नाम ही सम्यक्त है जो सम्यक्त बिना शास्त्र स्वाध्याय के किसी को भी न होगा, यही कारण है कि किन्हीं एक भी आचार्य ने (कथाग्रंथों की बात छोड़ दीजिए) मूर्ति की मान्यता न बताकर केवल एक यही उपदेश किया कि इस पंचमकाल में कालदोष से संहनन न होने से ध्यान की सिद्धि नहीं अतः मुनि व श्रावकों को शास्त्र स्वाध्याय करके सम्यज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यह गाथा श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने रयणसार जी गाथा नं. ६४ में कही है, देख लीजिए। कथा ग्रन्थों की बात छोड़ देने को जो कहा है सो क्यों ? इसे सभी विद्वान जानते हैं कि कथायें कितनी मनगढ़न्त लिखीं जा सकती हैं कि जिससे वे सिद्धांततः प्रमाणीक नहीं मानी जातीं, यदि आप कथा ग्रन्थों को प्रमाणीक मानने का श्रद्धान व आग्रह रखते हों तो संसार में सभी सम्प्रदाय वाले केवल कथा ग्रन्थों पर ही श्रद्धान मान रहे हैं व उन्हीं को मानकर चल रहे हैं फिर हममें और दूसरों में अन्तर हो क्या रहा, सोचिए । अतएव सम्यक्त प्राप्त करके यदि हमें श्रात्मकल्याण करना है तो बहुत विचार करना चाहिए और आचायों की आज्ञा मानकर चलना चाहिए। मूर्ति का दर्शन-पूजन अथवा शास्त्र का भी खाली दर्शन-पूजन कर लेने से हमें एक जन्म तो क्या सौ जन्म में भी सम्यक्त न होगा, जब तक कि आचार्यों की आज्ञानुसार शास्त्रस्वाध्याय करके हम वीतराग भाव अर्थात् संसार से उदासीनता को प्राप्त न कर लेंगे । क्योंकि वीतरागता ही उदासीनता है, शास्त्रों व मूर्ति का नाम वीतराग धर्म नहीं, वह तो आत्मा में हैइसलिए श्री तारण स्वामी ने श्री श्रावकाचार ग्रन्थ में श्रावकों को सर्वप्रथम ही यह उपदेश किया है कि हे भाई! यदि तुम सम्यक्ती बनकर शाश्वत सुख जो मोक्ष में है उसे पाना चाहते हो तो संसार, शरीर और भोगों से उदास होकर वेराग्य भावना का चितवन करो और तीन मिध्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी चार कषायें ( क्रोध, मान, माया, लोभ ) छोड़ो। कैसी हैं यह चार कषायें, जो कि दुष्ट मिध्यात्व की संगति से तुम्हें दुःख दे रही हैं व अनादिकाल से चतुर्गति चौरासी लाख योनियों में भटका रही हैं । इस समय तुम्हें सब संयोग प्राप्त हैं कि छूटने का प्रयत्न कर सकते हो, क्योंकि यह मनुष्य देह, श्रावक कुल व श्री जिनवाणी का संयोग बड़े ही पुण्य के उदय से मिला है, इस समय चाहो तो सब कर सकते हो । I
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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