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________________ * तारण - वाणी * [ २०७ सम्यक्ज्ञान रूपी डोरा यदि आत्मा में पिरोया हो तो चौरासी के अवतार में ( जन्म-परण के चक्कर में ) खो नहीं सकता । जीव ने अनन्त बार बाह्य में दया दान पूजा और नीति पूर्वक आचरण इत्यादि सब कुछ किया है, वह कहीं नया नहीं है और उस शुभ करने के फलस्वरूप शुभ- देवादि गतियों को पाया है । धर्म के नाम पर, आत्मप्रतीति के बिना ही व्रत तप अनन्त बार कर चुका है, किन्तु अत्मप्रतीति के बिना संसार में परिभ्रमण करना बना ही रहा । जिस जीव ने सम्यक दर्शन प्राप्त कर लिया है, वह भले ही कुछ समय तक संसार में रहे किन्तु उसकी दृष्टि में तो संसार का अभाव हो हो चुकी है 1 धर्म के नाम पर ( अज्ञानी जीव भी ) बाह्य सब कुछ कर चुका है, नत्र पूर्व और ग्यारह अंगों को भी व्यवहार से अनन्तवार जाना है, किन्तु यह ज्ञात नहीं हुआ कि परमार्थ क्या है, क्योंकि उसने स्वाधीन स्वभाव को ही नहीं जाना । कुछ निमित्त चाहिये या पराश्रय चाहिये, इस प्रकार मूल श्रद्धा में ही अनादि से गड़बड़ कर रखी है। 1 मैं शुद्ध हूँ, पर से भिन्न हूँ, ऐसा मन संबंधी विकल्प भी पराश्रय रूप राग है, धर्म नहीं है । मन के अवलम्बन के बिना स्थिर नहीं रह सकता, मात्र स्वभाव में नहीं रह सकता, इस भ्रम के द्वारा पराश्रय की श्रद्धा को नहीं छोड़ता और पराश्रय की श्रद्धा को छोड़े बिना यथाथ श्रद्धा नहीं होती । आत्मा की अनुभूति रूप स्वाश्रय एकाग्रता को ही शांत ज्ञान की अनुभूति कहा है। अज्ञानी जन ज्ञेयों में ही, इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के विषयों में ही लुब्ध हो रहे हैं । जिनशासन किसी बाह्य वस्तु में नहीं है, कोई सम्प्रदाय जिनशासन नहीं है, किन्तु परनिमित्त के भेद से रहित, निराबलम्बी भात्मा में और पराश्रय रहित, श्रद्धा ज्ञान एवं स्थिरता में सच्चा जिनशासन है । जिन शासन = जिन कहिए अन्तरात्मा, शासन कहिये अधिकार में, अन्तरात्मानुकून प्रवर्तन होना सो ही जिनशासन जानना । चाहे जैसा घोर अन्धकार हो, किंतु उसे दूर करने का एकमात्र उपाय प्रकाश ही है। संसार के दूसरे कोई करोड़ों उपाय भी अन्धकार को दूर नहीं कर सकते। ठीक इसी तरह अज्ञानांधकार को दूर करने में समर्थ एकमात्र आत्मज्ञान रूपी प्रकाश ही है और वह आत्मा में मौजूद ही है। जिस तरह दियासलाई की सींक में अन्धकार को दूर करने वाला प्रकाश मौजूद है, केवल घिसने की युक्ति भर लक्ष में हो । यही बात आत्मज्ञान-प्रकाश करने की जानना ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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