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________________ १९२] * तारण-वाणी * पात्र जीव के लक्षण-जिज्ञासु जीवों को बम्प का निर्णय करने के लिये शास्त्रों ने पहिले हो ज्ञान क्रिया बनलाई है। बाप का निर्णय करने के लिये दूसरा कोई दान-पूजा-मनि-व्रत. नपादि करने को नहीं कहा है. किन्तु शास्त्रज्ञान से ज्ञानस्वरूप आत्मा का निर्णय करने को ही कहा है। कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्र की ओर का आदर और उस ओर का झुकाव तो हट ही जाना चाहिये तथा विषयादि परवन्तु में से सुग्ववृद्धि दूर हो जानी चाहिए। सब ओर से मचि हट. कर अपनी आत्मा की ओर मचि ढलनी चाहिए। और देव-शास्त्र-गुरु को यथाथनया पहिचान कर उस ओर आदर करे, और यह मब यदि म्वभाव के लक्ष्य से हुआ हा ता उस जीव का पात्रता हुई कहलाता है । इननी पात्रता तो अभी सम्यग्दर्शन का मूल कारण नहीं है ! सम्यन्दशेन का मूल कारण चैतन्य समाव का लक्ष करना है, किन्तु पहले कुदवादि का सवथा त्याग ना सच्चे देव, गुरु, शस्त्र और मत्समागम का प्रम, पात्र जीवों के होता ही है। ऐसे पात्र हुए को आत्मा का स्वरूप समझने के लिये क्या करना चाहिए, सी यहाँ गष्ट बताया है। सम्यग्दर्शन के उपाय के लिये ज्ञानियों के द्वारा बताई गई क्रियापहले शास्त्रज्ञान के अवलंबन से जनसाव आत्मा का निश्चय कर के, फिर अान्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लियं. पर पदार्थ का प्रमिद के कारमा जी इन्द्रियों के द्वारा और मन के द्वार। जो प्रवतमान बुद्धयां हैं उन्हें मयादा में लाकर जियो अपन मनिज्ञान तत्त्व को ( विवक को ) आत्मसन्मुम्ब किया है एमा, तथा नाना कार के कक्षा के आलंबन से होने वाले अनेक विकारों के द्वाग आकुलना को उत्पन्न करने वाली अनसन की बुद्धियों का भी मान मयादा में जाकर युक्तज्ञान -नत्व का भी आन्मसन्मुख करना हुआ, अन्यन्त बिकल्प राहत होकर पल अपनी परमात्मस्वरूप आत्मा को जब आत्मा अनुभव करता है उसी समय आत्मा सम्पन्न या दिखाइ दना है ( अथान श्रद्धा की जाती है ) और ज्ञान होता है वही, सम्यन्दशन और सम्यग्ज्ञान है। . .. .. ' . . . (दयो समयसार गाथा १४४ की दीका ) प्रथम श्रतज्ञान (शास्त्रज्ञान ) के अवलंबन से ज्ञानम्वभाव आत्मा का निभा कर पहले। भगवान ने अपना कार्य भलीभांति किया, किन्तु वे दनर का कुछ भी कर पाकि जिसका जो कुछ भी भला-बुरा होता है वह अपने ही उपादान से होता है ! प्रत्येक द्रव्य पृथक पृथक स्वतंत्र है, कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता। इस प्रकार .समझ लेना ही भगवान के द्वारा कहे गये शास्त्रों की पहिचान है, और वहीं श्रुतहीन है। प्रभावना का सच्चा स्वरूप-कोई जीव पर द्रव्य की प्रभावना नहीं कर सकता, किन्तु जैन धर्म जो कि आत्मा, का कीतसरा स्वभाव है उसकी प्रभावलधर्मी जीव करते है। !
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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