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________________ * तारण-वाणी [१८७ वह सब इस सम्यक्त्व का ही माहात्म्य है ऐसा जानो। सिद्धिकर्ता ऐसे सम्यक्त्व को जिसने स्वप्न में भी मलिन नहीं किया है उस पुरुष को धन्य है, वही सुकृतार्थ है, वही वीर है, और वही पंडित है। (मोक्षपाहुब ८६-८८-८६ ) ___ जो सम्यग्दृष्टि गृहस्थ है वह मोक्षमार्ग में स्थित है, परन्तु मिथ्यादृष्टि मुनि मोक्षमार्गी नहीं है, इसलिये मिध्यादृष्टि मुनि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ ही श्रेष्ठ है। (रत्नकरड श्रावकाचार ३३) सम्यग्दर्शन सहित जीव का नरकवास भी श्रेष्ठ है, परन्तु सम्यग्दर्शन रहित जीव का स्वर्ग में रहना भी शोभा नहीं देता; क्योंकि प्रात्मभान बिना (आत्मज्ञान बिना ) स्वर्ग में भी वह दुःखी है । जहां पात्मज्ञान है वहीं सच्चा सुख है। ( सारसमुच्चय ३६) ___ साधक जीव प्रारम्भ से अन्त तक निश्चय की मुख्यता रखकर व्यवहार को गौण हो करता जाता है; इसीलिये साधक दशा में निश्चय की मुख्यता के बल से साधक के शुद्धता की वृद्धि होती जाती है और अशुद्धता हटती जाती है इस तरह निश्चय की मुख्यता के बल से ही पूर्ण केवलज्ञानी होते हैं, फिर वहां मुख्यता गौणता नहीं होती और नय भी नहीं होता। ____ श्री वीतराग देव ने सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की घोषणा की है। इसका स्पष्ट अर्थ हुआ कि वे इस जीव को अपने आश्रित रखने को भी नहीं कहते प्रत्युत जीव स्वयं अपना पुरुषार्थ करे तो ही कर्म बन्धन से मुक्त होगा अर्थात् भगवान की वन्दना पूजा भक्ति और नामस्मरण मोक्षप्रदायक नहीं, केवल पुण्य-बंधकारक ही जानना । सत् शास्त्र का धर्मबुद्धि द्वारा अभ्यास करना सम्यग्दर्शन का कारण है। निश्चय सम्यग्दर्शन से ही धर्म का प्रारम्भ होता है । मूलभूत भूल के बिना दुःख नहीं होता, और उस भूल के दूर होने पर सुख हुये बिना नहीं रह सकता-यह अबाधित सिद्धांत है। वस्तु का यथार्थ स्वरूप समझे बिना वह भूल दूर नहीं होती। अज्ञान दशा में जीव दुःख भोग रहे हैं, इसका कारण यह है कि उन्हें अपने स्वरूप के सम्बन्ध में भ्रम है, जिसे ( जिस भ्रम को) मिथ्यादर्शन' कहा जाता है । 'दर्शन' का एक अर्थ मान्यता भी है । यहाँ इसलिये मिथ्यादर्शन का मर्थ मिथ्या मान्यता है। जहां अपने स्वरूप की मिथ्या मान्यता होती है वहाँ जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान मिथ्या ही होता है। उस मिथ्या या खोटे ज्ञान को 'मिथ्याज्ञान' कहा जाता है। जहां स्वरूप की मिध्या मान्यता और मिथ्याज्ञान होता है वहां चारित्र भी मिथ्या ही होता है। उस मिथ्या या खोटे चारित्र को 'मिथ्याचारित्र' कहा
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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