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________________ * तारण-वाणी * [ १८१ जन्य ! पराधीन ) सुख देती है और एक प्रकार से आत्मा को परतंत्र ही करती है, इसीलिये प्रात्मज्ञान की दृष्टि से 'पुण्य पाप प्रक्षालित' कहा है। तथा पाप परिणति तो प्रत्यक्ष ही दुःखदायक है तथा नर्क निगोदादि दीन-हीन गतियों में ले जाती है । निर्जरा शुद्ध भाव से ही होती है अर्थात् तत्त्वदृष्टि के बिना, संवर पूर्वक निर्जरा नहीं होती । संवर पूर्वक निर्जरा होती है, उसी का नाम धर्म अथवा प्रात्म-धर्म है जो कि हमारी प्रात्मा को कर्म-बंधन से उत्तरोत्तर छुटकारा कराती है । यथार्थ ज्ञान का नाम हो तत्वदृष्टि अथवा नवष्टि का नाम ही यथार्थ ज्ञान है. सम्यग्ज्ञान है । इसका हो जाना ही सच्चा भाग्योदय है। इसलिये प्राचार्यों ने कहा है किधन कन कंचन राज-सुख, सबहि सुलभकरि जान। दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ।। जितने अंश में शुद्ध भाव की प्रगटता होती है उतने अंरा में धर्म होता है और धर्म से ही संवर पूर्वक निर्जरा होती है। धर्म आत्मा का अपना निज भाव है । धर्म का ही दुमरा नाम सम्यक्त है और सम्यक्त का नाम ही धर्म है । तीव्र भाव, मंद भाव, ज्ञान भाव, अज्ञान भाव, अधिकरण विशेष और वीर्य विशेष से आश्रव में विशेषता हीनाधिकता होती है। अधिकरण-जिस द्रव्य का आश्रय लिया जावे वह अधिकरण है। बीर्य-द्रव्य की शक्तिविशेष को वीर्य (बल ) कहते हैं। तत्त्वज्ञान की दृष्टि से 'आश्रव' ही दुःख का मूल है । वह शुभ हो या अशुभ । प्रश्न-प्रशुभाश्रव से बचने के लिये हम पाप-कार्य न करें यह तो ठीक है परन्तु क्या शुभाश्रव से बचने के लिये हमें पुण्य-कार्य भी न करने चाहिए ? उत्तर-प्रत्येक को अपने पद के अनुसार पुण्य-कार्य तो करने चाहिये। परन्तु पुण्य-कार्य करते हुये किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं करने पर शुभाश्रव न होगा और यदि होगा भी तो सातिश्रय पुण्य-बंध कारक होगा जो कि आत्मकल्याण में बाधक नहीं प्रत्युत साधक होगा । "अधिकरणं जीवाऽजीवाः ।" अधिकरण जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य ऐसे दो भेद रूप है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि आत्मा में जो कर्मास्रव होता है उसमें दो प्रकार का निमित्त होता है; एक जीव निमित्त और दूसरा अजीव निमित्त ।। जिस कषाय से जीव अपने स्वरूपाचरण चिरित्र को प्रगट न कर सके उसे मनतानुबंधी कषाय कहते हैं । जिस कषाय से जीव एक देश रूप संयम ( सम्यग्दृष्टि श्रावक के व्रत ) किंचित् मात्र भी प्राप्त न कर सके उसे अप्रत्याख्यान कषाय कहते हैं। जिस कषाय से सम्यग्दर्शन पूर्वक सकल संयम को ग्रहण न कर सके उसे प्रत्याख्यान कषाय कहते हैं। जिस कषाय से जीव का
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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