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________________ * तारण-वाणी * [ १७७ अणुव्रत, महाव्रत, दान, मैत्री, करुणा भाव इन सबसे पुण्य का बंध होता है । पुण्य से स्वर्गादिसम्पदा मिलती है, संसार को चारों गतियों में पुण्य सहायक होता है कि जिसकी सहायता से दुखों का निवारण और सुख-साता की प्राप्ति होती है । अतः जब तक हमारी आत्मा को संसार में रहना है हमें पुण्य की परम आवश्यकता है। इसलिये हमें देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये श्रावक के षटू कर्म नियम से पालने ही चाहिए। ऐसा नहीं कि पुण्य से भी जब बंध कहा है तो पुण्य कार्य छोड़ ही देने चाहिए । यदि ऐसी भूल की गई तो (जैसा कि कानजी स्वामी का प्रवचन सुनकर या उनका साहित्य पढ़कर कई भाई पुण्य कार्य छोड़कर उच्छख़ल हो गये हैं ) इधर के रहेंगे न उधर के । 'माया मिलो न राम' यही दशा होगी। हाँ समझना है कि पुण्य से ही संसार भ्रमण नहीं छूटेगा जब तक कि हम 'धर्म की प्राप्ति करने का पुरुषार्थ नहीं करेंगे । “धर्म की परिभाषा है आत्मा का अपना स्वभाव ।" यह तब ही प्राप्त होगा जब कि हम आत्मा की आराधना करेंगे। यदि हम आत्म-आराधना छोड़कर भगवान की आराचना जो कि - पुण्य-बंध को करने वाली है उसे ही मोक्षप्राप्ति का कारण जानकर करते रहेंगे तो धोखे में पड़े रहेंगे और मोक्ष नहीं पायेंगे । अतएव प्रत्येक श्रावक का कर्त्तव्य है कि वह षट् कर्म करता हुआ भी आत्म आराधना करता रहे; किन्तु षट् कर्मों को न छोड़ बैठे । हाँ पट कर्म' शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकार के होते हैं उन्हें भली भांति समझले, इसका वर्णन श्री तारण स्वामी ने श्री श्रावकाचार जी ग्रन्थ ( अध्यात्मवाणी ) में गाथा नं० ३२० से ३७६ तक विस्तार रूप से किया है। यदि हमने शुद्ध पट् कर्म को नहीं समझा और अशुद्ध षट् कर्म ही करते रहे तो पुण्य बंध की बजाय पाप बंध ही होता रहेगा । ग्रह देव का स्वरूप क्या है । उसे तो नहीं समझा और कुदेव मिध्याकुदेव तथा प्रदेव (मूर्ति) को देव मानकर इनकी पूजा को देवपूजा, निर्ग्रन्थ गुरु का स्वरूप क्या है । उसे तो नहीं समझा और रागी - द्वेषी, परिग्रहधारो ( भले हो उन्होंने अपना क्षेत्र मुनि का ही क्यों न बना लिया हो ) गुरु की उपासना को गुरूपास्ति । स्वाध्याय का वास्तविक अर्थ है स्वात्मानुभव और ऐसे ही ग्रन्थों की स्वाध्याय करना, इसे न किया और विकथा एवं कुकथाओं को वर्णन करने वाले कथा पुराणों के पढ़ लेने को मान लिया स्वाध्याय, तथा इसी तरह असंयम को संग्रम, कुतप को तप, और कुदान को दान मानकर करते रहे तो केवल पाप का ही बंध करने वाला पट् कर्म होगा; और यदि शुद्ध षट् कर्म किया जायगा तो पुण्य बंध होता रहेगा। फिर भी यह ध्यान रखना जैसाकि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि पुण्य-बंध से मोक्ष नहीं होती मोक्ष तो केवल अपनी आत्म-आराधना से ही होती है। अतएव श्रावक हो चाहे मुनि, सबको ही श्रात्म आराधना करनी ही चाहिये। इस तरह पुण्य-बंध आत्म आराधना की दोहरी लाइन आपकी या हमारी सबकी चलती रहने पर सम्यक्त
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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