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________________ १७४] * तारण-वाणी मार्ग कहा है, इसीलिये इसे व्यवहार कहते हैं। इस प्रकार यह जानना कि-भूतार्थ मोक्षमार्ग के द्वारा निश्चय नय और अभूतार्थ मोक्षमार्ग के द्वारा व्यवहार नय कहा है। किन्तु इन दोनों को हो यथार्थ मोक्षमार्ग जानकर उसे उपादेय मानना सो तो मिथ्या बुद्धि ही है। किसी भी जीव के निश्चय-व्यवहार का स्वरूप समझे बिना धर्म या संबर-निर्जरा नहीं होती । शुद्ध आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझे बिना निश्चय-व्यवहार का यथार्थ स्वरूप समझ में नहीं आता; इसलिये पहले आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझने की आवश्यकता है। जिन धर्म का अर्थ है वस्तुस्वभाव । जितने अश में आत्मा को स्वभाव दशा (शुद्ध दशः) प्रगट होती है उतने अंश में जीव के जिन धर्म' प्रगट हुआ कहलाता है। जिन धर्म कोई संप्रदाय बाड़ा या संघ नहीं किन्तु प्रात्मा की शुद्ध दशा है; और श्रात्मा की शुद्धता में तारतम्यता होने पर शुद्ध रूप तो एक ही तरह का है अत: जिन धर्म में प्रभेद नहीं हो सकते । जैन धम के नाम में जो बाड़ा-बंदी देखी जाती है उसे यथार्थ में जिनधर्म नहीं कह सकते। भरत क्षेत्र में जिन धर्म पांचवें काल के अंत तक रहने वाला है, अर्थात् वहां तक अपनी शुद्धता प्रगट करने वाले मनुष्य इस क्षेत्र में ही होते हैं और उनके शुद्धता के उपादान कारण की तैयारी होने से आत्मज्ञानी गुरु और सत् शास्त्रों का निमित्त भी होता ही है। जैन धर्म के नाम से कहे जाने वाले शास्त्रों में से कौन से शास्त्र परम सत्य के उपदेशक है, इसका निणय धर्म करने के इच्छुक जीवों को अवश्य करना चाहिये। जब तक जीव स्वयं यथार्थ परीक्षा करके कौन सन शास्त्र है, इसका निर्णय नहीं करता, तब तब गृहीत मिथ्यात्व दूर नहीं होता । गृहीन मिथ्यात्व दूर हुए विना अगृहीत मिथ्यात्व दूर होकर सम्यग्दर्शन तो हो ही कैसे सकता है ? इसीलिये जीवों को स्त्र में जिन धर्म प्रगट करने के लिये अर्थात् यथार्थ संवर-निर्जरा प्रगट करने के लिये सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । समस्त पराश्रित व्यवहार यदि वे शुभ होते हैं तो शुभ-बंध के और अशुभ होते हैं तो अशुभ-बंध के कर्ता जानकर उन्हें छोड़ना तथा स्वाभित, आत्माश्रित जो जो भी प्रवृत्तियां हैं वे सब कर्मनिर्जरा का कारण जानकर उन्हें ग्रहण करना, बस यही एक मात्र उपदेश श्री तारण स्वामी का पाया जाता है। निश्चयनय द्वारा जो निरूपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अंगीकार करना चाहिये, और व्यवहारनय द्वारा जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना चाहिये । ( श्री कानजी स्वामी) श्री समयसार कलश १७३ में भी यही कहा है कि जिससे सभी हिंसादि तथा अहिंसादि में अध्यवसाय हैं वे सब छोड़ना-ऐसा श्री जिनदेव ने कहा है। उससे मैं ( अमृतचन्द्राचार्य ) ऐसा
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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