SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६] * तारण-वाणी ऐसे जीव चाहे जितना तप करें तो भी उनका समस्त तप बाल तप (अर्थात् मज्ञान तप, मूर्खता वाला तप ) कहलाता है ( देखो समयसार गाथा १५२ ) भाव कर्म का नाश करने के लिये म्ब (आत्मा) की शुद्धता के प्रतपन को तप कहते हैं। यह सम्यग्दृष्टि के होता है। श्री प्रवचनसार की गाथा १४ में "स्वरूपविश्रांतनिस्तरंगचैतन्यप्रतपनाच्च तप:" अर्थात्-स्वरूप में विश्रांत, तरंगों से रहित जो चैतन्य का प्रतपन हे सो तप है। बहुत से अनशनादि को तप मानते हैं और उस तप से निर्जरा मानते हैं, किन्तु बाह्य नप से निर्जरा नहीं होती, निर्जरा का कारण तो शुद्धोपयोग है। शुद्धोपयोग के बिना मात्र अनशन ( भूखे रहने ) से निर्जरा होती तो तिर्यंचादिक भी भूख प्यासादि के दुःख सहन करत हैं इसलिय उनके भी निर्जरा होनी चाहिये । धर्म की बुद्धि से बाह्य उपवासादिक तो करे किन्तु वहां शुभ, अशुभ या शुद्ध रूप जैमा उपयोग परिणमता है उसी के अनुसार बंध या निर्जरा होती है। अत: शुद्धोपयोग ही सम्यक् तप है। ज्ञानी पुरुष के उपवामादि को इच्छा नहीं किन्तु एक शुद्धोपयोग की ही भावना है। ज्ञानो पुरुष उपवासादि के काल में शुद्धोपयोग बढ़ाता है, किन्तु जहाँ उपवासादि से शरीर की या परिणामों की शिथिल ना के द्वारा शुद्धोपयोग शिथिल होता जानता है वहाँ आहारादि ग्रहण करता है । यदि उपवासादि से ही सिद्धि होती तो श्री अजितनाथ आदि तीर्थकर दीक्षा लेकर दो उपवास ही क्यों करते ? उनकी तो शक्ति भी बहुत थी, परन्तु जैसा परिणम हुआ वैसे ही साधन के द्वार एक वीतराग शुद्धोपयोग का अभ्यास किया, बढ़ाया । ___ सम्यग्दृष्टि जीव के वीतरागता बढ़ती है, वही सच्चा तप है। अनशनादि को मात्र निमित्त की अपेक्षा से 'तप' संज्ञा दी गई है। 'सम्यग्दृष्टि जीव के तप में राग के जितने अंश होते हैं उनके द्वारा पुण्य का बंध होता है तथा जितने अंश में शुद्धोपयोग रूप वीतरागता के भाव होते हैं उतने बंश में निर्जरा होती है।' अनादि अज्ञानी जीवों ने कभी सम्यग्गुप्ति धारण नहीं की। अनेक वार द्रव्यलिंगी मुनि होकर जीव ने शुभोपयोग रूप गुप्ति समिति आदि निरतिचार पालन की किन्तु वह सम्यक् न थी। किसी भी जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना सम्यग्गुप्ति नहीं हो सकतो और उसका भव भ्रमण दूर नहीं हो सकता । इसलिये पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करके क्रमक्रम से भागे बढ़कर सम्यग्गुप्ति प्रगट करनी चाहिये। 'अकेले प्रशस्त राग-शुभ राग' से पुण्याश्रव भी मानना और संवर निर्जरा भी मानना सो भ्रम है। मिश्र रूप भाव में भी यह सरागता है और यह वीतरागता है ऐसी यथार्थ पहिचान सम्य
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy