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________________ १३६] * तारण-वाणी शूरवीर हैं, पंडित हैं, मनुष्य हैं । और ते ही भले प्रकार कृतार्थ हैं । या बिना मनुष्य पशु समान हैं ऐसा सम्यक्त्व का माहात्म्य कहा । हिंसारहिते धर्म अष्टादशदोषवर्जिते देवे । निग्रंन्थे प्रावचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ॥१०॥ अर्थ-हिंसा रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निम्रन्थ प्रवचन, इनि विर्षे श्रद्धान होते संते सम्यक्त्व होय है । ये ही सम्यक्त्व के बाह्य चिन्ह हैं । आगे मिथ्यादृष्टि के चिन्ह कहैं हैं कुत्सितदेवं धर्म कुत्सितलिंगं च बन्दते यस्तु । लज्जाभयगारवतः मिथ्यादृष्टिभवेत् स हु ॥१२॥ अर्थ-कुत्सित देव, कुत्सित धर्म, कुत्सित भेष जो कोई लज्जातें भयतें मान बड़ाई के रक्षार्थ इनिकों वन्दै है वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है । सम्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदेशितं करोति । विपरीतं कुर्वन् मिथ्याष्टिः ज्ञातव्यः ॥१४॥ अर्थ-जो जिनदेव का उपदेश्या या धर्म करै है सो सम्यग्दृष्टी श्रावक है, बहुरि जो उसके विपरीत धर्म कू करै है सो मिथ्यादृष्टि है, ऐसा जानों। मिथ्या दृष्टिः यः सः संसारे संसरति सुखरहितः । जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुले जीवः ॥९५॥ अर्थ-जो मिथ्यादृष्टि जीव है सो जरामरणनिकरि प्रचुर भया अरु हजारानि दुःखनि करि व्याप्त जो संसार ता विर्षे सुख करि रहित दुःखी भया भ्रमैं है । सम्यक्त्वं गुणः मिथ्यात्वं दोषः मनसा परिमाव्य तत्कुरु । यत्ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु ॥१६॥ अर्थ-हे भव्य ! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व के गुण पर मिथ्यात्व के दोष तिनिकू अपने मन करि भावना करि पर जो अपना मनकू रुचै सो करो। नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् । स्तूयमानः स्तूयते देहस्यं किमपि तत् मनुत ॥१०३॥
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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