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________________ १३४] * तारण-वाणी देवगुरूणां भक्ताः निर्वेदपरंपरा विचिन्तयन्तः । ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीता मोक्षमार्गे ॥८॥ अर्थ-जे मुनि देव गुरुनि के भक्त हैं बहुरि निर्वेद कहिये संसार, देह भोगते विरागता को परम्परा कू चितवन करें हैं, बहुरि ध्यान के विषै रत हैं, रक्त हैं, तत्पर हैं, बहुरि भला है चरित्र जिनका, ते ही मोक्षमार्गी हैं। निश्चय व्यवहारात्मक सम्यकचारित्र जिनके पाइये है ते ही मुनि मोक्षमार्गी हैं, मात्र भेषी मोक्षमार्गी नाही। उर्धाधोमध्यलोके केचित् मम न अहकमेकाकी । इति भावनया योगिनः प्राप्नुवंति हि शाश्वतं सौख्यम् ।।८१।। अर्थ-मुनि एसी भावना करै जो मैं तीनों लोक में एकाको हूँ, दूसरा कोई मेरा नाहीं ते ही मोक्ष कू पावें हैं । जाके निरन्तर एकाकी की भावना रहे है भप लेय करि भी लौकिक जननिसूं लान पाल अर्थात अधिक स्नेह व्यवहार गर्व है मा मोक्षमार्गी नहीं । पुरुषाकर आत्मा योगी वग्ज्ञानदर्शनसमग्रः । यो ध्यायति स योगी पापहरो भवति निर्द्वन्द्वः ।।८४॥ अर्थ-यह आत्मा ध्यान के योग्य कैसा है, पुरुषाकार है, बहुरि योगी है, मन वचन काय का जाके निरोध है, सर्वांग सुनिश्चल है, बहुरि वर कहिये श्रेष्ठ मम्यक् रूप ज्ञान अर दर्शन करि समग्र है, परिपूर्ण है, केवलज्ञान दर्शन जाकें पाइये है, ऐसा आत्मा कू जो योगी ध्यानी मुनि ध्यावै है सो मुनि पाप का हरने वाला है, अर निर्द्वन्द्व है, गागद्वेष आदि विकल्पनि करि रहित है । एतत् जिनैः कथितं श्रवणानां श्रावकार्णा पुनः पुनः । संसारविनाशकरं सिद्धिकरं कारणं परमं ॥८५॥ अर्थ-एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार तो उपदेश श्रमण जे मुनि तिनिकू जिनदेव ने कहा है। बहुरि अत्र श्रावकनि कू कहिये है सो सुनो, कैसा कहिये है-संसार का तो विनाश करनेवाला अर सिद्धि जो मोक्ष ताका करने वाला उत्कृष्ट कारण ऐसा उपदेश है । श्रागै श्रावकनि कू प्रथम कहा करना, सो कहैं हैं, गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुरगिरिरिव निष्कपम् । तद् ध्याने ध्यायते श्रावक दुःखक्षयार्थे ॥८६॥
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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