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________________ • तारण-वाणी [१२५ भगवान ने किया है कारण कि निश्चयरूप से आत्मा की पूजा और व्यवहाररूप से शास्त्रपूजा यही पुण्यबंध तथा निर्जरा की कारण है। उपरोक्त वचन की पुष्टिरूप गाथा जो पूजा-पाठ के अन्त की है: एतत् समिक्त पूजस्य, पूजा-पूज समाचरेत् । मुक्तिश्रियं पंथं शुद्धं, व्यवहार निश्चय शाश्वतं ।। अथ-भो श्रावको ! उपरोक्त प्रकार कही गई जो पूजा, कैसी है, सम्यक् रूप है, इस ऐसी पूजा को ही पूज्य समझकर उस पूजारूप प्राचरण करो अर्थात् शास्त्र की पूजा यही कि जिनवाणी स्वरूप जे शास्त्र- वचन उन पर श्रद्धान करो । तथा प्रात्मा की पूजा यही है कि आत्मरूप जो पाचरण, कैसा है वह आचरण, समतारूप, आनन्दरूप, निवृत्तिरूप और मंगलस्वरूप है । ऐसी जो पूजा, मोक्षलक्ष्मी प्राप्त कराने वाली शुद्धमार्गानुसारी है, अर्थात् मोक्षमार्ग में सहायक है और व्यवहारनय तथा निश्चयनय इन दोनों नयों में शाश्वतस्वरूप है । भावार्थ यह कि उपरोक्त प्रकार की पूजा श्रावक और मुनियों दोनों को करने योग्य है । प्राचार्य श्री तारण स्वामी कहते हैं कि और अधिक क्या कहें जे सिद्धनंतं मुक्तिप्रवेशं, ते शुद्ध स्वरूपं गुणमालग्रहितं । जे केवि भव्यात्म संमिक्त शुद्धं, ते जात-मोक्षं कथितं जिनेन्द्रं ॥ अर्थ-जो अनन्त सिद्ध मुक्ति को प्राप्त हुये हैं वे सब ही आत्मा के शुद्ध-स्वरूप गुणों को ही (गुणरूपी माला को ही ) ग्रहण करके हुये हैं, तदनुसार जो कोई भव्यात्मा शुद्ध सम्यक्तरूप आत्मगुणों की माला को ग्रहण करेंगे वे भी मोक्ष जाने वाले होंगे, ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यतिवचन ( जिलाणी ) ही सम्यक्त के कारण है जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम् । जरामरणव्याधिहरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ।। ( अष्टपाहुइ १७) बहुत कहने करि कहा, सर्व सिद्धि शुद्ध भावों में ही है
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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