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________________ १०] * तारण-वाणी. होते समभाव प्रगट होता है तब यही प्रात्मा जिनेन्द्र हो जाता है ॥४॥ जिनेन्द्र शून्यभाव में अनंत काल तक रहते हुये शून्य स्वभाव का अनुभव करते रहते हैं। वे अनन्तानन्त शक्तिधारी शून्नभावों में समा जाते हैं ॥५॥ इसी निर्विकल्प वीतराग भाव से क्षपकोणी चढ़कर शून्यभाव के अनुभवी जिनेन्द्र होते हैं। वे इसी शून्यभाव का स्वाद लेते हुये शून्यभाव में समा जाते हैं ॥६॥ जिनराज अपने पद में स्वानुभव में समाये रहते हैं। वे ही तारण तरण कमल समान जिनेन्द्र हैं ।।७।। भावार्थ-यहां शून्यभाव की महिमा बताई है । शून्यभाव ही साधक है, शून्यभाव ही नाधन है। निर्विकल्प वीतराग प्रात्मस्थ स्वानुभव को ही शून्यभाव कहते हैं। यही वास्तव में मोक्षमार्ग है इसी से जो परमात्मा का पद होता है वह भी शून्यरूप है। वहाँ भी एक स्वसमवकप भाव है। समयसार कलश में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है-शुद्धज्ञान, ग्रहण त्याग के विकल्प से शून्य होकर भावों से छूटकर अपने में निश्चल ठहरा हुआ, अपने भिन्न वस्तुपने को (प्रात्मा की एकाग्रता को) रखता हुआ ऐसा स्थिर हो जाता है कि फिर उसमें आदि, मध्य, अन्त की कल्पना नहीं होती है, सहज तेज (प्रात्मा का स्वभाविक तेज) में चमकता है व अपनी शुद्ध झान समूह की महिमा में सदा प्रकाश करता है । -० शीतलप्रसाद जी विशेष-शून्यभाव अव्रतसम्यग्दृष्टि चौथे गुणवर्ती श्रावक के प्रारम्भ हो जाता है। यहां यह स्थाई नहीं रहता, फिर भी इसकी स्मृति हर समय बनी ही रहती है । शून्यभाव का सीधा अर्थ है आत्म-एकाग्रता या निर्विकल्प वीतराग भाव को झलक, जिसमें संसार से अपनत्वभाव छूटने मगता है और आत्मनत्व भाव झलकने लगता है। इसी शून्यभाव की बढ़ती हुई दशा का नाम ही आत्मश्रेणी या गुणश्रेणी का चढ़ना है। जितना-जितना अधिक झलकाव वा इसकी स्थिरना हममें होती जाती है उतना-उतना गुणस्थान बढ़ता जाता है और बीच में जितना इस भाव का उतार हो जाता है उतना गुणस्थान कम हो जाता है। जो ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत उतार चढ़ाव बना रहता है। यदि क्षपकश्रेणी मांड ली हो तो आठवें के बाद से ही उतार नहीं होता। यही शून्यभाव है, इसी का दूसरा नाम आकिंचन भाव भी है। जो यह बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर' केवल-ज्ञान उत्पन्न कर देता है। उस तेरहवें गुणस्थान में यह शून्यभाव बिलकुल स्थिरता को प्राप्त हो जाता है तथा यही शून्यभाव सिद्धों में साश्वतभाव से रहा ही करता है । प्रयोजन यह कि प्रात्म कल्याण के लिये सारी महिमा इस शून्यभाव कि जिसका आधार आकिंचन धर्म है, की ही है। प्रयत्न पूर्वक इसकी वृद्धि करनी चाहिये ।"
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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