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________________ * तारण-वाणी * [९९ अर्थ-यद्यपि इस समय कलिकाल में तीन लोक के पूजनीक केवली भगवान विराजमान नहीं हैं तो भी इस भरतक्षेत्र में समस्त जगत को प्रकाश करने वाली उन केवली भगवान की वाणी मौजूद है तथा उस वाणी के आधार श्रेष्ठ रत्नत्रय के धारी मुनि हैं, इसलिये उन मुनियों को पूजन तो सरस्वती की पूजन है तथा सरस्वती ( जिन-वाणी ) की पूजन साक्षात् केवली भगवान की पूजन है। इस तरह जबकि श्री जिनवाणो ( सरस्वती ) को साक्षात् केवली भगवान की प्रतिमा बनावें। क्या हमें इन आचार्य वचनों पर विश्वास न करना चाहिये ? प्राचार्य वचनों के साथ साथ स्वयं के अनुभव से भी यह बात बिल्कुल ही ठीक बैठती है कि वर्तमान में एकमात्र जिनवाणी ही हमारी आत्मा का कल्याण करने में भगवान की तरह सामर्थ्यवान है। बहिरात्मभावों के त्यागने पर ही कल्याण होता है किं बहुणा हो तजि बहिरप्पसरूवाणि सयलभावाणि । भजि मज्झिमपरमप्पा वत्थुसरूवाणि भावाणि ॥१४१॥ अर्थ-बहुत क्या कहैं कि-बहिरात्मस्वरूप वाले जितने भाव हैं उन सबको छोड़ देना चाहिये और अन्तरात्मा तथा परमात्मापने के यथार्थ स्वभाव को ग्रहण करना चाहिये-अपनाना चाहिये । इसी के आगे की गाथा १४२, १४३ में यह स्पष्ट किया है कि-बहिरात्मा जीवों के जो भाव होते हैं वे चारों गतियों में परिभ्रमण कराने के कारण होते हैं और अनेक महादुःख देनेवाले होते हैं, तथा अंतरात्मा और परमात्मापने के जो वास्तविक-भाव होते हैं वे मोक्षगति में पहुंचाने के कारण होते हैं और अतिशय पुण्य के कारण होते हैं। गाथा १४६ में बताया कि-१, २, ३ गुणस्थान वाले बहिरात्मा तथा चौथे गुणस्थान वाले मम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा है व ५वें से ११वें गुणस्थान वान्ले मध्यम तथा १२वें गुणस्थान के उत्तम अन्तरात्मा है तथा १३वे १४वे के सकल तथा सिद्ध भगवान निकल परमात्मा है एमा जानना । आगे गाथा १५१ में कहा कि-बहुत कहने से क्या लाभ ? थोड़े में ही यह समझ लेना चाहिये कि भगवान अरहन और मिद्ध परमात्मा जो देवेन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती और गणधर देवादिकों द्वारा पूज्य हुए हैं सो सम्यग्दर्शन प्रत्येक भव्यजीव को धारण करना कर्तव्य है। उक्समई सम्मत्तं, मिच्छत्त बलेण पेल्लए तस्स । परिवदृति कसाया, अवसप्पिणिकालदोसेण ॥१५५॥ अर्थ-इस अवसर्पिणीकाल में इस काल के दोष से मिथ्यात्वकर्म का तीव्र उदय उप
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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