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________________ तारण-वाणी [ ४९ ममलं ममल सरूच, न्यान विन्यान न्यान सहकारं। जिन उत्तं जिन वयनं, जिन सहकारेन मुक्तिगमनं च ॥२०॥ जिनके अमृत-वचन मोक्ष से, मृदु फल के दायक हैं । हस्तमलकवत् जो त्रिभुवन के, घट घट के ज्ञायक हैं । ऐसे जिन प्रभु भी यह कहते, चेतन अविकारी है । आत्म-ज्ञान ही पंच ज्ञान के, पथ में सहकारी है ॥ जिनके अमृत रूपी वचन मोक्ष का सा मधुर फल देने वाले हैं तथा जो त्रिभुवन के घट घट के ज्ञाता है, ऐसे जिनेन्द्र प्रभु भी केवल एक ही बात कहते हैं और वह यही कि हे भव्यो ! तुम्हारे घट में जो आत्मा का वास है तुम उसी के ज्ञान गुणों में तल्लीन होकर केवल उसी का मनन करो, क्योंकि वह आत्मा चेतनता से युक्त एक निर्विकार पदार्थ है, तथा केवलज्ञान की उत्पत्ति भी आत्मज्ञान से ही होती है। षट्काई जीवानां, क्रिया सहकार ममल भावेन, सत्त जीव सभावं, कृपा सह ममल कलिष्ट जीवानं ॥२१॥ अनिल, अनल, जल, धरणि, वनस्पति, औ त्रस तन में ज्ञानी ! पाये जाते हैं वसुधा पर, सब संसारी प्राणी ॥ इन जीवों पर दयाभाव ही, समतामात्र कहाता । चेतन का यह चिर-स्वभाव है, माव-विशुद्ध बढ़ाता । पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन और वनस्पति इन सबमें तथा त्रस पर्यायों में अगणित षटकायिक जीवों का वास है। इन जीवों पर दया भाव करना ही समता भाव कहलाता है और यह समता भाव चेतन का चिर-स्वभाव है जिसके बल पर भावविशुद्धि में नितप्रति वृद्धि होती रहती है। षट्काय के सभी जीवों को अपना शरीर मोह के वशीभूत इष्ट लगता है, उसमें दुःख का भान कराने का नाम हिंसा है और सुख-साता का भान कराना दया करना है।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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