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________________ - - ४४ = =तारण-वाणी= तिअर्थ सुद्ध दिष्टं, पंचायं पंच न्यान परमेस्टी । पंचाचार सु चरन, सम्मत्तं सुद्ध न्यान आचरनं ॥१०॥ सम्यग्दृष्टी नितप्रति निर्मल, रत्नत्रय को ध्याता । पंच ज्ञान, पंचार्थ, पंच प्रभु, का होता वह ज्ञाता ॥ पंचाचारों का नितप्रति ही, वह पालन करता है । सब मिथ्या व्यवहार त्याग वह, आत्म-ध्यान धरता है ॥ जिसे आत्मबोध हो जाता है या जो एकमात्र प्रात्मा का ही पुजारी रहता है वह नित प्रति रनत्रय का ही चिन्तवन किया करता है। पांचों ज्ञान, पांचों तत्त्व तथा पांचों प्रभु के गुणों का वह पूर्ण ज्ञाता रहता है। पंचाचारों का वह नियम पूर्वक पालन करता है तथा मिथ्या व्यवहारों से वह अपना अंचल छुड़ाकर सदा आत्मध्यान में ही लवलीन रहा करता है। यही सब उसके ज्ञान सहित व सम्यक्त्व सहित वाह्य व अभ्यन्तर आचरण हैं। दर्सन न्यान सुचरन, देवं च परम देव सुद्धं च । गुरुवं च परम गुरुवं, धर्म च परम धर्म संभावं ॥११॥ आत्म तत्व ही इस त्रिभुवन में, सच्चा रत्नत्रय है । सब देवों का देव वही, परमेश्वर एक अजय है । आत्म तत्व ही सब गुरुओं में, श्रेष्ठ परम गुरु ज्ञानी । सब धर्मों में श्रेष्ठ धर्म बस, आत्म तत्व सुखदानी ॥ इस त्रिभुवन में यदि कोई सच्चा रत्नत्रय है तो वह है शुद्धात्मा, सच्चा देव कोई है तो वह है शुद्धात्मा, गुरु यदि सच्चा गुरु है तो वह है शुद्धात्मा और धर्म कोई है तो वह भी शुद्धात्मा ही है, जिसकी विद्यमानता बाहर कहीं नहीं, अपने आप में घट घट में है। तात्पर्य यह कि-अपने आपकी शुद्धात्म-परिणति ही सम्यक्त्व है और वही संसार सागर से पार लगाने वाला सच्चा धर्म है।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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