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________________ ४० = तारण-वाणी= जिन वयनं सदहन, कमलसिरि कमल भाव उबवन्न । आर्जव भाव संजुत्तं, ईर्ज स्वभाव मुक्ति गमनं च ॥२॥ पतितोद्धारक जिनवाणी के, होते जो श्रद्धानी । आत्म-कमल से प्रगटैं, उनके, ही भव-भाव भवानी ॥ आत्मबोध का होजाना ही, आकुलता जाना है। आकुलता का जाना ही बस, शिव सुख को पाना है ॥ जो पतितोद्धारक जिनवाणी में अटूट श्रद्धा रखते हैं उनके हृदय से, कमल के समान निराकुल और पवित्र भावों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि जहां प्रात्मबोध हो जाता है, वहां आकुलता समूल नष्ट हो जाती है और जहां आकुलता नहीं वहाँ मुक्ति का द्वार तो फिर खुला ही है, ऐसा समझो। अन्मोयं न्यान सहाव, रयनं रयन स्वरूपममल न्यानस्य । ममलं ममल सहावं, न्यानं अन्मोय सिद्धि संपत्ति ॥३॥ ज्ञान--स्वभाव है, स्वत्व सनातन, आत्मतत्व का प्यारा । रत्नत्रय से है प्रदीप्त वह, रत्न प्रखरतम न्यारा ॥ कर्मों से निर्मुक्त सदा वह, शुचि स्वभाव का धारी । जो उसमें नित रत रहते वे, पाते शिव सुखकारी ॥ ज्ञान, आत्मा का एक जन्मसिद्ध और सनातन गुण है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र इन तीन रत्नों से वह सदैव ही प्रदीप्त रहता है। कमों के बंधनों से यह नितान्त निर्मुक्त है, अत: ऐसे निर्मल स्वभाव के धारी आत्मतत्त्व का जो ज्ञानी चितवन करते हैं, वे निश्चय ही उस सिद्धि-सम्पत्ति के अधिकारी बनते हैं। तात्पर्य यह कि-प्रात्मा का अपना जो ज्ञान स्वभाव, उससे प्रीति करना ही एकमात्र मोक्षप्राप्ति का उपाय है, साधन है। ...............nomwwwram..
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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