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________________ : तारण - त्राणी [ ३५ पदस्थ पिण्डस्य रूपस्थ चित्तं, रूपा अतीतं जे ध्यान युक्तं । आर्त रौद्र मद मान त्यक्त, ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलितं ॥ २८ ॥ पादस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, निमूर्त, इन ध्यान-कुंजों के जो बिहारी । मद - मान- से शत्रुओं के गढ़ों पर, जिनने विजय प्राप्त को भव्य भारी || जिनके न तो रौद्र ही पास जाता, जिनको न ध्यानार्त की गंध आती । ऐसे सुजन - पुंगवों के हृदय ही, यह आत्मगुण-मालिका है सजाती ॥ पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये धर्मध्यान के चार भेद ही जिनके दैनिक जीवन के अंग हो जाते हैं, आर्त और रौद्र ध्यान जिनके पास फटकने भी नहीं पाता तथा अष्ट मदों को जलाकर जो भस्म कर चुके हैं, हे श्रेणिक ! ऐसे ही आत्मबल में श्रेष्ठ पुरुष इस माला को अपने हृदय पर पहिरने के अधि कारी हुआ करते हैं । आज्ञा सुवेदं उपशम धरेत्वं, क्षायिकं शुद्धं जिन उक्त सार्धं । मिथ्या त्रिभेदं मल राग खंडं, ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलितं ॥२९॥ जो श्रेष्ठतम नर बेदक व उपशम, सम्यक्त्व के हैं शुचि शुद्ध धारी । मिथ्यात्व से हीन है प्राप्त जिनको, सम्यक्त्व क्षायिक-सा रत्न मारी ॥ मद - राग से जो रहित सर्वथा हैं, जो जानते जिन कथित तत्व पावन । वे ही हृदस्थल पर देखते हैं, नित राजती, मालिका यह सुहावन ॥ आज्ञा, वेदक, उपशम और क्षायिक सम्यक्त्व के जो पूर्णरूपेण धारी हो जाते हैं, तीन प्रकार के मिध्यात्वों को जो खंड खंड करके एक ओर डाल देते हैं तथा कर्मों के पहाड़ को रजकणों में मिला देने का पुरुषार्थ जिनमें जाग्रत हो जाता है, हे श्रेणिक सुनो ! यह अध्यात्ममाला उनके ही कंठ में निवास करती है । अद्धा से नहीं, विवेकपूर्वक जिन-वचनों पर विश्वास करने को भाझा सम्यक्त्व जानना ।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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