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________________ तारण-वाणी ૬ ૨૭ पड़माय ग्यारा तत्वान पेषं, वृत्तानि शीलं तप दान चित्तं । सम्यक्त्व शुद्धं न्यानं चरित्रं, सुदर्शनं शुद्ध मलं विमुक्तं ॥१२॥ एकादश स्थान में आचरण कर, कर्मारि पर जय करो प्राप्त भारी । पंचाणुव्रत पाल भव भव सुधारो, एकाग्र हो तप तपो तापहारी ॥ दो दान सत्पात्र-दल को चतुर्भाति, निज आत्म की ज्योति को जगमगाओ । पावन करो शील-सुर-वारि से गेह, सम्यक्त्व-निधि प्राप्त कर मोक्ष पाओ ॥ भव्यो ! तुम्हारा क्रमशः आत्मिक विकास हो, केवल इसके लिये ही ग्यारह प्रतिमाओं ( ग्यारह प्रतिज्ञाओं ) की सृष्टि हुई है। अत: तुम अपनी शक्ति के अनुसार क्रमशः एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर चढ़ते चले जाओ। पंचाणु व्रतों का यथाशक्ति पालन करो और शील, तप व दान में अधिक से अधिक अपनी शक्ति को लगाकर प्रयास यह करो कि तुम्हारा सम्यक्त्व पूर्ण निर्मलता को प्राप्त हो जावे। 'सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव होने पर ही पहली दर्शनप्रतिमा कही गई है' तथा उसकी क्रमबद्ध निर्मलता ही प्रतिमाओं की विशेषता है। मूलं गुणं पालत जीव शुद्धं, शुद्धं मयं निर्मल धारणेत्वं । ज्ञानं मयं शुद्ध धरति चित्तं, ते शुद्ध दृष्टी शुद्धात्मतत्वं ॥१३॥ वसु मूलगुण को पालन किये से, रे! जीव होता है शुद्ध, सुन्दर। पुण्यार्थियों को इससे उचित है, धारण करें वे यह व्रत-पुरन्दर ॥ जो ज्ञानसागर इस आचरण से, यह देव-दुर्लभ जीवन सजाते । वे वीर नर ही हैं शुद्ध दृष्टी, शुद्धात्म के तत्व वे ही कहाते । सम्यक्त्व के अष्टमूल गुणों को पालन करने से अपना यह देह दुर्लभ जीवन शोभायमान हो जाता है, आत्मा के प्रदेशों से बंधे हुये कर्म कटने लगते हैं और उनकी अपनी आत्मा दिन प्रतिदिन शुद्धता की ओर अग्रसर होती चली जाती है, ऐसा इस सम्यक्त्व का माहात्म्य जानकर जो भव्यजीव अष्टमूल गुणों का पालन करते हैं मानों वे ही पुरुष शुद्ध सम्यक्त्व के पात्र हैं अथवा पात्र होने के वे ही जीव अधिकारी हैं।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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