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________________ १६ ]’ - तारण-वाणी: प्रति इन्द्र प्रति पूर्णस्य, शुद्धात्मा शुद्ध भावना । शुद्धार्थं शुद्ध समयं च प्रति इन्द्र शुद्ध दृष्टितं ॥ २६ ॥ इन्द्र कौन ? निज चेतन ही तो, सत्य इन्द्र भव्यो स्वयमेव । वही एक है शुद्ध भावना, वही परम देवों का देव ॥ वही ब्रह्म, शुचि शुद्ध अर्थ है, वही समय निर्मल, पावन । उसी शुद्ध चिद्रूप देव का, करो चितवन मनभावन ॥ भगवान की पूजा इन्द्रों ने की थी अथवा नहीं की थी यह तो भगवान हो जानें, किन्तु तुम्हारी शुद्धात्मा का स्वरूप भी परमब्रह्म परमेश्वर के समान है व ज्ञानधन की ठौर है, ऐसे चिद्रूप देव शुद्धात्मा का जिसका कि दूसरा नाम इन्द्र है उस अपने इन्द्रस्वरूप आत्मा की तुम स्वयं इन्द्र के समान अत्यन्त उल्लास के साथ पूजन करो, क्योंकि यही पूजा तुम्हारा मंगल करने की क्षमता रखती है, दूसरी नहीं । दाताऽरु दान शुद्धं च पूजा आचरण संयुतं । शुद्धसम्यक्त्वहृदयं यस्य, स्थिरं शुद्ध भावना ॥२७॥ जिस जन के हृदयस्थल में है, सम्यग्दर्शन रत्न महान । अपने ही में आप लीन जो, जिसे न सपने में पर ध्यान ॥ आत्म द्रव्य का पूजन करता, कर जो नव आदर सत्कार । परमब्रह्म को वही ज्ञान का, देता महा दानदातार ॥ जिसके हृदय में सम्यक्त्व रत्न जगमगा रहा है और जो अपने आप में लीन रहने में ही सारे सुखों का अनुभव करता है वह जब आत्म द्रव्य का पूजन करता है तो उसकी यह पूजा एक पवित्रतम दान का रूप धारण कर लेती है और विद्वान इस पूजा को एक ज्ञानी के द्वारा आत्मा को ज्ञान का दान दिया जाना ही कह कर के पुकारते हैं। इस ज्ञान दान में चारों ही दान का समावेश मंथन करने पर तुम्हें मालूम होगा। क्योंकि आत्म-पूजन से आत्मा में ज्ञान की वृद्धि; निर्भयता की जाप्रति, अपने आप में स्थिरता, तथा श्रानन्दामृत का भोजन पान, इस तरह के यह चारों दान व्यवहार दान की अपेक्षा बहुमूल्य व मंगलदायक होंगे।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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