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________________ तारण-वाणी शुद्धात्मा चेतनाभावं, शुद्ध दृष्टि समं ध्रुवं । शुद्धभाव स्थिरीभूत्वा, ज्ञान स्नान पंडितः ॥१२॥ शुद्ध आत्मा है हे भव्यो ! सत् चैतन्य भाव का पुंज । सम्यग्दर्शन से आभूषित, मोक्ष प्रदाता, ज्ञान-निकुंज ॥ निश्चल मन से इसी तत्व को, शुद्ध गुणों का करना ध्यान । पंडित वृन्दों का बस यह ही, प्रक्षालन है सत्य महान् ॥ शुद्धात्मा, चेतना से संयुक्त प्रकाश का एक विशाल और अलौकिक पुज है, सम्यक्त्व इसका प्रधान आभूषण है और अनश्वरता इसका वह गुण है जिसके कारण संसार में यह अपना सर्वोच्च स्थान रस्वता है व इसके समान यह गुण दूसरे किसी में नहीं पाया जाता । इस शुद्धात्मा में स्थिर होकर इसके ज्ञान-गुणों का चिंतवन करना ही पंडितों का एकमात्र वास्तविक प्रक्षालन है। प्रक्षालितं त्रति मिथ्यात्वं, शल्यं त्रियं निकंदनं । कुज्ञान राग दोषं च, प्रक्षालितं अशुभभावना ॥१३॥ धुल जाते इस ज्ञान-नीर से, तीनों ही मिथ्यात्व समूल । तीनों शल्यों को विनिष्ट कर, ज्ञान बना देता यह धूल ॥ अशुभ भावनाएं भी सारी, इस जल से धुल जाती हैं । राग द्वेष, कुज्ञान-कालिमा, पास न रहने पाती हैं । शलात्मा के इस सरोवर में स्नान करने से तीनों मिथ्यात्व समूल नष्ट हो जाते हैं। हृदय में दिन रात चुभने वाली तीनों शल्ये इसके जलस्पर्श से तत्काल निकल जाती हैं और कुज्ञान राग द्वष और अशुभ भावनायें तो फिर इसमें स्नान करने वाले विद्वान के साथ रहने ही नहीं पातीं; शरीर मल के समान वे भी उसकी आत्मा से एक साथ ही खिर जाती हैं, पृथक् हो जाती हैं ।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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