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________________ तारण - वाणी ह्रींकारं ज्ञान उत्पन्न, ओंकारं च वंदते । अरहं सर्वज्ञ उक्तं च, अचक्षु दर्शन दृष्टते ||४|| जगतपूज्य अरहन्त जिनेश्वर, जिसका देते नव उपदेश | साम्य दृष्टि सर्वज्ञ सुनाते, जिसका घर घर में सन्देश || जो अचक्षु-दर्शन-चख गोचर, जो चित चमत्कार सम्पन्न । ओंकार की शुद्ध वंदना, करती वही ज्ञान उत्पन्न जिसका रहंत प्रभु उपदेश देते हैं और जिस सन्देश को वे हो सर्वज्ञ भगवान प्रत्येक प्राणी तक पहुँचाते हैं, उस ओम् महापद की या अपनी शुद्धात्मा की वह वन्दना उसके अपने अन्तरंग में उस विशुद्ध ज्ञान की सृष्टि सृजन कर देती है जो कल्पनातीत होती है। और कंवल उसकी अपनी आत्मा ही जिसका रसास्वादन करती है तथा उसके चमत्कार को उसके ज्ञान नेत्र ही देखते हैं। मति श्रुतश्च संपूर्ण, ज्ञानं पंचमयं ध्रुवं । पंडितो सोपि जानते, ज्ञानं शास्त्र स पूजते ॥५॥ [ ५ मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय से, ज्ञान करें जिसमें कल्लोल । पंच ज्ञान केवल भी जिसमें छोड़ रहा नित ज्योति अलोल || ऐसे आत्म-शास्त्र को ही नित, जो पूजे विवेक - शिरमौर । वही सत्य पंडित प्रज्ञाधर, वही ज्ञान-धन का है ठौर ॥ जिसमें मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और यहां तक कि केवलज्ञान भी अपने प्रकाश पुंज बिखरा रहा है, अथवा जो पांचों ज्ञान का एक मात्र निधान है ऐसे आत्मा रूपी शास्त्र की ही जो विज्ञजन पूजा करते हैं, वे ही वास्तव में पंडित हैं और प्रज्ञा उन्हीं में ठौर पाकर अपने जीवन को कृतकृत्य मानती है।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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