SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ के गर्भ में आया। यह जानकर दोनों अति प्रसन्न हुए। गर्भाधान होने पर कोमलांगी जिनमती का शरीर शिथिल रहने लगा, कोमल अंग में पसीना आने लगा। वह शिथिलता से मिष्ट वचनों पूर्वक बातचीत करती थी। अनेक प्रकार की बाधा आदि होने पर भी गर्भ में रहनेवाले चरमशरीरी शिशु को कोई भी बाधा नहीं होती थी। जिनमती रत्नगर्भा पृथ्वी के समान शोभती थी। जिनमती को समय-समय पर दोहले उत्पन्न होते थे। जैसे - मैं देव-शास्त्र-गुरु की पवित्र-भाव से पूजा करूँ, जिन-बिम्बों की खूब उत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा कराऊँ, जिन मंदिरों, जिन-चैत्यालयों का जीर्णोद्धार कराऊँ, चार संघ को चार प्रकार का दान दूं, तीर्थक्षेत्रों की यात्रा करूँ, इत्यादि। पुण्य-प्रताप से उसके घर में पहले ही अटूट धन-सम्पदा थी। वह कुछ भी करना चाहे, सब-कुछ संभव है। अतः वह अपने मनोरथों को निर्विघ्न सम्पन्न करने लगी। उसे विभाव से भिन्न आनंदमयी चैतन्यभाव में रमण करने का परिणाम प्रायः उठा करता था, उसे विषयों का रस नहीं सुहाता था, वह तो चैतन्यारस को ही चाहती थी। माता-पिता के मन में चरम शरीरी अंतिम केवली अपने पुत्र को देखने की अति तीव्र भावना थी। जैसे-जैसे गर्भस्थ बालक वृद्धिंगत होता जाता था, वैसे वैसे उनकी ये भावनाएँ अति तीव्र होती जाती थीं। मोक्षगामी सुत की खुशी में पुलकित-वदन और धर्माचरण में लगे हुए मन को यह ज्ञात ही नहीं हुआ कि नौ मास नौ दिन का समय कब व्यतीत हो गया। पूर्व दिशा में उदित सूर्य के समान, फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में पूर्णिमा के शुभ दिन का प्रभात जम्बूकुमार के अवतरण से चमक उठा। जिनका वैराग्य रस गर्भित पुलकित वदन और सुन्दर रूप देखने को अँखियाँ तरस रही थीं, आज उस रूप को निरख अँखियाँ तृप्त होकर भी अतृप्तपने का अनुभव कर रही थी। सेठजी के आनंद का कुछ पार न था। उन्होंने बड़े धूमधाम से चरमशरीरी पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। सारे नगर में बधाईयाँ बजवाई, जिनालयों में पूजन एवं विधानोत्सव कराया। घर-घर में मंगलगान कराये। जगह-जगह तत्व-गोष्ठियाँ होने लगीं। नगर के प्रत्येक चौराहे पर किमिच्छक दान दिया जाने लगा। राजा एवं नगर के श्रेष्ठिगण
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy