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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र है। केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में जाकर सादि-अनंत काल तक आत्मिक अतीन्द्रिय आनंद को भोगना प्राणिमात्र का कर्तव्य है। ऐसे वीतरागी मार्ग को रानियाँ, प्रजा एवं सभी जन अपनाकर धर्ममय जीवन बितावें; इसमें दुःख या शोक की क्या बात है? ये राज्य, लक्ष्मी तथा भोग भोगने लायक नहीं हैं। महापुरुष इन्हें उच्छिष्ट जानकर त्याग गये हैं। ये सभी किंपाकफलवत् हैं। इसलिए हे तात! आप मुझे आज्ञा दीजिए, मैं शीघ्र ही जिनदीक्षा अंगीकार करना चाहता हूँ।" इस तरह पुत्र के बोधप्रद वचनों को सुनकर पुत्र के मन की बात को बुद्धिमान चक्रवर्ती अच्छी तरह जान गये कि यह पुत्र संसार से भयभीत है, उदास है, वैराग्य के रंग में रंगा होने से आत्म-साधना के लिए निश्चित ही तप को ग्रहण कर मोक्ष को वरेगा। अब मुझे भी मोह में फँसकर उसके हित में बाधक बनना योग्य नहीं है। अतः उन्होंने कहा - "हे सौम्य ! जैसे तुम प्राणियों पर दया कर रहे हो, वैसे मुझ पर भी दया करो। तुम तप अंगीकार करके अपने घर में ही एकांत स्थान में रहकर शक्ति-अनुसार तप करो, जिससे तुम्हारी साधना भी होती रहे और हम तुम्हें देखते भी रहें। जब मन में राग-द्वेष नहीं, तब वन या घर सभी समान हैं।" शिवकुमार घर में वैरागी पिताजी के मर्मान्तक वचनों को सुनकर शिवकुमार दुविधा में पड़कर विचारने लगे - "अरे! कैसी हे ये विडम्बना! अति महादुर्लभ वैराग्य पाकर भी आत्माभ्यास के बिना एवं कषायोदय की तीव्रता के वश मेरा मन पिता के वचनों में अटक रहा है। भले ही कुछ समय को राग तीव्र हो तो हो ले, परन्तु अंतत: तो मैं सकल संयम ही धारण कर आत्महित करूँगा।" ऐसा विचार कर शिवकुमार मधुर वचनो से बोले - “हे तात ! आपकी इच्छानुसार ही मैं आत्माभ्यास करूँगा।" पिताजी को धीरज बंधाने के बाद कुमार अपनी भावना को व्यक्त करते हुए बोले, - "हे पिताजी! अभी मेरा मन पूज्य मुनिवर
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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