SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र आ हा हा.....! अब भवदेव मुनिराज निरंतर अपने समयसार स्वरूप को अर्थात् निजात्मा को भजने लगे। ज्ञान-ध्यान एवं उग्र-उग्र तपों में संलग्न हो अपने बड़े गुरुजनों के समान तप करने लगे। शुभ-अशुभ से जो रोककर, निज आत्म को आत्मा ही से। दर्शन अवरु ज्ञान हि ठहर, परद्रव्य इच्छा परिहरे॥ जो सर्वसंग विमक्त ध्यावे, आत्म से आत्मा ही को। नहिं कर्म अरु नोकर्म चेतक, चेतता एकत्व को॥ वह आत्म ध्याता, ज्ञान-दर्शनमय अनन्यमयी हुआ। बस अल्पकाल जु कर्म से, परिमोक्ष पावे आत्म का॥ निजस्वरूपस्थ श्री भवदेव मुनिराज को अब एकमात्र मोक्ष की ही भावना शेष रह गई है और सभी प्रकार की इच्छाएँ विलय को प्राप्त हो गई हैं। वे अब क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, शत्रु, मित्र, स्वर्ण, पाषाण, हानि, लाभ, निन्दा, प्रशंसा आदि सभी में समभाव के धारी हो गये। निज स्वरूप की आराधना करते-करते अब जीवन के कुछ ही क्षण शेष रहे थे कि महान कुशल बुद्धि के धारक भावदेव और भवदेव दोनों तपोधनों ने उस शेष समय में आत्मतल्लीनतारूप परम समाधिमरण को स्वीकार कर प्रतिमायोग धारण पर विपुलाचल पर्वत कर पंडितमरण द्वारा इस नश्वर काया का त्याग कर सानत्कुमार नामक तीसरे स्वर्ग में सात सागर की आयुवाली देव पर्याय को प्राप्त किया। अहो! ऐसी आत्माराधनापूर्वक पंडितमरण करने वाले युगल तपोधनों की जय हो !! जय हो!!! भावदेव-भवदेव का स्वर्गारोहण अरे भवितव्य! ज्ञायकस्वभाव के आराधकों को स्वर्गसुख की वांछा न होने पर भी पुरुषार्थ की कमजोरी से अर्थात् कषायकण जीवित रहने से उस प्रशस्त राग रूप अंगारों के फलस्वरूप स्वर्गसुखों में जलना पड़ता है। वे युगलदेव सुन्दर एवं सुगंधित तन के धारी हैं। उनके कंठ में निर्मल मणियों से जड़ित सुन्दर मालायें शोभ रही हैं। उत्तमोत्तम
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy