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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र ५१ हे मुने! वास्तव में इस स्त्री - शरीररूपी कुटी में कोई भी पदार्थ सुन्दर नहीं है। इसलिए अपने मन को शीघ्र ही संसार, देह, भोगों से पूर्ण विरक्त करके, निःशल्य होकर स्वरूप में विश्रांति रूप निर्विकार चैतन्य का प्रतपन रूपी तप का साधन करो। जिससे स्वर्ग व मोक्षसुख प्राप्त होते हैं। अनेक दुःखदायी सुखाभासों को देने वाले इन विषय-भोगों में इस जन्म को व्यर्थ कयों खोना ? क्या कभी अग्नि ईंधन से तृप्त हुई है ? इस जीव ने अनंत भवों मे अनंत बार स्त्री आदि के अपार भोगों को भोगा है और कई बार जूठन के समान छोड़ा है। हे वीर ! भोगों में अनुराग करने से आपको क्या मिलेगा ? केवल दुःख ही दुःख मिलेगा ।" धर्मरत्न श्री आर्यिकाजी के धर्मरसपूर्ण वचनों को सुनकर भवदेव मुनि महाराज का मन स्त्री आदि के भोगों से पूर्णतः विरक्त हो गया। वे मन ही मन अति लज्जित हो अपने को धिक्कारने लगे । मुनिराज प्रतिबुद्ध होकर आर्यिकाजी की बारंबार प्रशंसा करने लगे “मैं भवदेव आपके वचनों के श्रवण से अभिपाक संयोग सुवर्ण के समान निर्मल हो गया हूँ। हे आर्ये! आप धन्य हो । मुझ जैसे अधम के उद्धार में आप नौका समान हो। आपने मुझे मोह से भरे अगाध जलराशि में से एवं सैकड़ों आवर्तों व भ्रमरों में डूबते हुए संसार - सागर से बचा लिया है। आपका अनंत उपकार है । " इतना कहकर मुनि भवदेवजी उठकर वन की ओर विहार कर गये । भवदेव मुनि द्वारा उत्कृष्ट मुनिचर्या का पालन भवदेव मुनि महाराज जंगल की ओर चलते-चलते विचार करते जा रहे हैं कि - अब हम सहज भये न रुलेंगे। बहु विधि रास रचाये अबलों, अब नहीं दे पोह महादुःख कारण जानो, इनको न भोगादिक विषय विष जाने, इनको घमन जग जो कहो तो कह लो मुनिपद धार रहें वन मांही, रे लेश ॥ टेक ॥ रखेंगे। करेंगे ॥ १४६ भैया, चिंता नाहीं करेंगे। काहू से नाहीं डरेंगे ॥ २ ॥
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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