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________________ ४८ जैनधर्म की कहानियाँ आर्यिकाजी के वचन सुनकर आतुरचित्त भवदेव मुनि पुनः प्रश्न करने लगे, मानो वे अपने अन्दर छिपे हुए खोटे अभिप्राय को ही उगल रहे हों - “हे आर्या! भवदेव के मुनि हो जाने के बाद उसकी नव-विवाहिता नागवसु पत्नी अब किस तरह रहती है?" बुद्धिमान आर्यिकाजी ने उसके विकार युक्त अभिप्राय को, उसके भययुक्त मन को तथा काँपते हुए शरीर को देखा तो वे विचारने लगीं - "अरे, रे! यह मुनिपद धारण करके भी कैसा मति-विमोहित हो कामाध हो रहा है? यह निश्चित ही दुस्सह कामभाव से पीड़ित हुआ होने से कांच-खंड के लिये रत्न को खो बैठा है। इसलिए धर्म से विचलित होने वालों को धर्मामृत-पान द्वारा पुन: स्थितिकरण कराना मेरा कर्तव्य है।" व्रत, शील एवं चारित्र को दृढ़ता से पालती हुई आर्यिकाजी विनय से मस्तक झुकाकर सरस्वती के समान सुखकारी वचनों से उन्हें संबोधने लगीं। मोक्षसाधिका नागवसु आर्यिका द्वारा भवदेव मुनि को संबोधन कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्वैर्भवान् भवभ्रमणकारणं स्मरशरनिदग्धं मुहः। स्वभावनियतं सुखे विधिवशादनासादितं भजत्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेर्भीतितः॥ हे यति! जो चित्त भव-भ्रमण का कारण है और बार-बार कामबाण की अग्नि से दग्ध है - ऐसे कषायक्लेश से रंगे हुए चित्त को तू अत्यन्त (पूर्णतः) छोड़ और जो विधिवशात् अप्राप्त है - ऐसे निर्मल स्वभाव-नियत सुख को तू प्रबल संसार की भीति से डरकर भज। तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम्। परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं सुखं रेमे कश्चिदत कलिहतोऽसौ जड़मतिः॥
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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